SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 401
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir से अपने दैनन्दिन जीवन में हर पल अहिंसा का पालन करता है। एक अहिंसक के लिए, अहिंसा ही जीवन-मार्ग है और वह जीवन-भर किसी भी जीव को अपने विचारों, शब्दों या कार्यों द्वारा हानि न पहुँचाने का प्रयास करता है। ऐसा आचरण अहिंसक के जीने का ढंग कहलाता है। एक जीव द्वारा की गई हिंसा दो प्रकार की है (1) एक प्राकृतिक स्वभाव या नैसर्गिक प्रवृत्ति, जैसा कि मांसाहारी पशु जो दूसरे जीव की भोजन के लिए हत्या करता है और (2) वरण, जिसमें हिंसा करने वाला साधारणतया मनुष्य होता है। सभी जीवों में चार आवश्यक संज्ञाएँ एक-समान होती हैं । ये हैं- भूख, प्रजनन, नींद एवं भय। केवल मनुष्य ही अपने खाने का वरण या -फिर वस्त्र पहनने का चुनाव (बिना किसी जीव के प्रति हिंसा किए) कर सकता है। अन्य सभी जीव इस प्रकार का चुनाव नहीं कर सकते। वे इन चार आवश्यक क्षेत्रों में प्राकृतिक स्वभाव और आवश्यकताओं के अनुसार जीवन व्यतीत करते हैं। प्रश्न : कौन-सी प्रजाति हिंसा का चुनाव करती है? उत्तर स्पष्ट है : संसार में मानव ही सर्वाधिक हिंसा करते हैं, क्योंकि वे हिंसा का वरण करते हैं। वे स्वभावानुसार या प्राकृतिक प्रवृत्ति होने के कारण हिंसा नहीं करते। वे भोजन के लिए हिंसा करते हैं, क्योंकि वे अन्य जीवों की हत्या करते हैं। अहिंसा का इतिहास अहिंसा का सिद्धान्त प्राचीन गुरुओं ने लाखों वर्ष पहले प्रतिपादित किया था। लगभग सभी चिन्तक एवं धर्मगुरु इसे मानव-चरित्र का मूल सिद्धान्त मानते हैं। यद्यपि महावीर, बुद्ध, जीसस क्राइस्ट जैसे सत्य के खोजी और ल्होत्से, कन्फ्यूशियस जैसे दार्शनिक एवं पाइथागोरस -जैसी विभूतियाँ भौगोलिक रूप से एक-दूसरे से दूर थे, पर उनका दर्शन सत्य की निरन्तरता का प्रतिपादन करता है; विशेष रूप से जैनधर्म में 'अहिंसा परमो धर्मः' कहा गया है। ___ भगवान महावीर का उपदेश इस शाश्वत सत्य पर आधारित है कि सभी प्राणियों का स्वभाव प्रसन्नता एवं शान्ति से रहना तथा परमानन्द की प्राप्ति है। आध्यात्मिक स्तर पर जैनियों ने हिंसा को पाप का पर्याय माना है, जो कर्म बन्धन, पुनर्जन्म और उससे जुड़ी पीड़ा का कारण है। अत: जब मैं किसी व्यक्ति के विरुद्ध हिंसा करता हूँ, तो सर्व-प्रथम अपने-आपको आहत करता हूँ। जैनधर्म में अहिंसा का मूलाधार मैं आत्मा हूँ, शरीर नहीं। मैं सनातन हूँ निरन्तर और पवित्र । इस ब्रह्माण्ड में रहने वाला प्रत्येक प्राणी - छोटा या बड़ा, मानव या पशु, पेड़-पौधे और अन्य जीव सभी की मेरी 392 :: जैनधर्म परिचय For Private And Personal Use Only
SR No.020865
Book TitleJain Dharm Parichay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRushabhprasad Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2012
Total Pages876
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy