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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रमुख स्थान है। श्रमण संस्कृति के दर्शन, सिद्धान्त, धर्म उसके प्रवर्तकों-तीर्थंकरों तथा उनकी परम्परा का महनीय अवदान है। आदि तीर्थंकर ऋषभदेव से लेकर अन्तिम अर्थात् चौबीसवें तीर्थंकर महावीर और उनके उत्तरवर्ती आचार्यों, उपासकों ने आध्यात्मिक विद्या का प्रसार किया है, जिसे उपनिषद् साहित्य में 'परा-विद्या' अर्थात् उत्कृष्ट विद्या कहा गया है। तीर्थक्षेत्र, मन्दिर, मूर्तियाँ, ग्रन्थागार, स्मारक आदि सांस्कृतिक विभव उन्हीं के अटूट प्रयत्नों से आज संरक्षित हैं । इस उपलब्ध सामग्री का श्रुतधराचार्य, सारस्वताचार्य, प्रबुद्धाचार्य और परम्परा पोषकाचार्यों द्वारा संवर्द्धन होता रहा है। आत्म-स्वरूप में रमण करना वस्तुतः चारित्र है। मोह, राग, द्वेष से रहित आत्मा का परिणाम साम्य भाव है, जिसे प्राप्त करना चारित्र का मूलोद्देश्य है। चारित्र-साधना गृहस्थ से प्रारम्भ होती है। विवेकवान विरक्त चित्त अणुव्रती गृहस्थ को श्रावक कहा गया है। जैन परम्परा के अनुसार श्रावक को तीन भागों-पाक्षिक, नैष्ठिक और साधक में विभक्त किया जा सकता है। पाक्षिक श्रावक देव-शास्त्र-गुरु का स्तवन करता है, साथ ही उसे रत्नत्रय-सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्र का पालन कर सप्तव्यसनों से विरक्त होकर अष्टमूलगुणों का स्थूल रूप से अनुपालन करना चाहिए। जो ग्यारह प्रतिमा को धारण कर चारित्र का पालन करता है, वह वस्तुत: नैष्ठिक श्रावक कहलाता है और जिसमें व्रतपालन कर अन्त में समाधिमरण की प्रवृत्ति विद्यमान रहती है, उसे साधक श्रावक कहा जाता है। संसार के समस्त प्राणी सुख चाहते हैं और दुःख से भयभीत रहते हैं। दुःखों से बचने के लिए आत्मा को समझकर उसमें लीन होना सच्चा उपाय है। मुनिराज अपने पुष्ट पुरुषार्थ द्वारा आत्मा का सुख विशेष प्राप्त कर लेते हैं और गृहस्थ अपनी भूमिकानुसार अंशतः सुख प्राप्त कर पाते हैं । उक्त मार्ग में चलने वाले सम्यक् दृष्टि श्रावक के आंशिक शुद्ध रूप निश्चय आवश्यक के साथ-साथ शुभ विकल्प भी आते हैं, उन्हें व्यवहार आवश्यक कहते हैं। श्रावक के आवश्यक व्यवहार छह प्रकार के बतलाए गये हैंसामायिक, स्तवन, वन्दना, प्रतिक्रमण, प्रत्याख्यान, उत्सर्ग। इस प्रकार श्रावक अर्थात् सद्गृहस्थ के लिए दान, पूजा आदि मुख्य कार्य हैं। इनके अभाव में कोई भी मनुष्य सद्गृहस्थ नहीं बन पाता। मुनिधर्म में ध्यान और अध्ययन करना मुख्य है। इनके बिना मुनिधर्म का पालन करना व्यर्थ है। याग, यज्ञ, ऋतु, पूजा, सपर्या, इज्या, अध्वर, मख और मह, ये सब पूजाविधि के पर्यायवाची शब्द हैं। नाम, स्थापना, द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव की अपेक्षा से छह प्रकार की पूजा का विधान है। अरहन्तादि का नाम उच्चारण करके विशुद्ध प्रदेश में जो पुष्प आदि क्षेपण किये जाते हैं, वह नाम पूजा कहलाती है। वस्तु विशेष में अर्हन्तादि के गुणों का आरोपण करना वस्तुत: स्थापना कहलाती है। स्थापना दो प्रकार की है-सद्भाव स्थापना और असद्भाव स्थापना। आकार वस्तु में अरहन्तादि के गुणों का जो आरोपण किया जाता है, उसे सद्भाव स्थापना पूजा कहा पूजा परम्परा :: 355 For Private And Personal Use Only
SR No.020865
Book TitleJain Dharm Parichay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRushabhprasad Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2012
Total Pages876
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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