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पूजा परम्परा
डॉ. आदित्य प्रचण्डिया
जैनधर्म के अनुसार मति, श्रुत, अवधि, मन:पर्यय और केवल नामक ज्ञान के पाँच भेद हैं। इन्हें स्वार्थ और परार्थ नामक दो भेदों में विभाजित किया गया है। मति, अवधि, मन:पर्यय और केवलज्ञान स्व-अर्थ सिद्ध हैं, जबकि परार्थ ज्ञान केवल एक है और वह भी श्रुत। श्रुत का प्रयोग शास्त्र के अर्थ में होता है। भारतीय धर्म-साधना में वैदिक, बौद्ध और जैनधर्म समाहित है। वैदिक शास्त्रों को वेद, बौद्ध शास्त्रों को पिटक तथा जैन शास्त्रों को आगम कहा जाता है। जो हित और अहित का ज्ञान कराते हैं, वे आगम हैं। जैन शास्त्रों का वर्गीकरण चार अनुयोगों-प्रथमानुयोग, करणानुयोग, चरणानुयोग, द्रव्यानुयोग-के रूप में किया गया है। जिन शास्त्रों में महापुरुषों के चरित्र द्वारा पुण्यपाप के फल का वर्णन होता है और अन्त में वीतरागता को हितकर निरूपित किया जाता है, उन शास्त्रों को प्रथमानुयोग कहते हैं। करणानुयोग के शास्त्रों में गुणस्थान, मार्गणास्थान आदि रूप से जीव का वर्णन होता है। इसमें गणित का प्राधान्य है, क्योंकि गणना और नाम का यहाँ व्यापक वर्णन होता है। गृहस्थ और मुनियों के आचरणनियमों का वर्णन चरणानुयोग के शास्त्रों में होता है। इनमें सुभाषित, नीति-शास्त्रों की पद्धति मुख्य है, जीवों को पाप से मुक्त कर धर्म में प्रवृत्त करना इनका मूल प्रयोजन है। इनमें प्रायः व्यवहार-नय की मुख्यता से कथन किया जाता है। बाह्याचार का समस्त विधान चरणानुयोग का मूल वर्ण्य विषय है। द्रव्यानुयोग में षद्रव्य, सप्ततत्त्व और स्व-पर भेद-विज्ञान का वर्णन होता है। इस अनुयोग का प्रयोजन वस्तु स्वरूप का सच्चा श्रद्धान तथा स्व-पर भेद-विज्ञान उत्पन्न कर वीतरागता प्राप्त करने की प्रेरणा देना है। जैनधर्म के अनुसार तो यह परिपाटी है कि पहले द्रव्यानुयोगानुसार सम्यग्दृष्टि हो, फिर चरणानुयोगामुसार व्रतादि धारण कर व्रती हो। पूजा-अर्चना का सम्बन्ध इन्हीं अनुयोगों से होता हुआ चरणानुयोग के शास्त्रों में पल्लवित हुआ है।
द्राविड़ तथा वैदिक परम्परा द्वारा निर्दिष्ट सन्मार्ग पर भारतीय जन समाज आरम्भ से ही प्रवहमान है। अपने आराध्य के श्रीचरणों में भक्ति-भावना व्यक्त करने के लिए ब्राह्मण शैली यज्ञ का आयोजन करती है। श्रमण समाज में पूजा का विधान व्यवस्थित हुआ, जिसमें पुष्प का क्षेपण उल्लेखनीय है। भारतीय संस्कृति में श्रमण संस्कृति का
354 :: जैनधर्म परिचय
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