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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir हैं, उनके स्मरण करने से कामवासना बढ़ती है, इसलिए उनका भूलकर भी स्मरण नहीं करना पूर्वरतानुस्मरणत्याग है। गरिष्ठ और प्रिय खानपान का त्याग करना वृष्येष्टरसत्याग है तथा किसी भी प्रकार से अपने शरीर का संस्कार नहीं करना, जिससे स्व और पर के मन में आसक्ति पैदा हो सकती हो, स्वशरीर संस्कारत्याग है। ये पाँच भावनाएँ ब्रह्मचर्यव्रत की विशुद्धि व दृढ़ता में सहायक हैं। ब्रह्मचर्याणुव्रत के पाँच अतिचार-परविवाहकरण, अपरिगृहीता-इत्वरिकागमन, परिगृहीता-इत्वरिकागमन, अनंगक्रीड़ा और कामतीव्राभिनिवेश ये पाँच ब्रह्मचर्याणुव्रत के अतिचार हैं। __ 1. पर-विवाहकरण-अपने पुत्र और पुत्रियों का विवाह करना श्रावक के चतुर्थ व्रत के अन्तर्गत है, किन्तु कन्यादान में पुण्य समझकर और रागादि के कारण दूसरों के लिए लड़के-लड़कियाँ ढूँढ़ना, उनका विवाह कराना पर-विवाह-करण नामक अतिचार है। 2. अपरिगृहीता-इत्वरिकागमन-जिसका अपना कोई पुरुष स्वामी नहीं है, जो वेश्या या व्यभिचारिणी होने से दूसरे पुरुषों के पास आती-जाती रहती हैं, ऐसी पुंश्चला स्त्रियों के संसर्ग करना अपरिगृहीता-इत्वरिकागमन-अतिचार है। ___3. परिगृहीता इत्वरिकागमन-जिसका कोई एक पुरुष भर्ता है, ऐसी परिगृहीता भी पुंश्चला स्त्री के संसर्ग में जाना परिगृहीता-इत्वरिकागमन-अतिचार है। 4. अनंगक्रीड़ा-अनंगों से क्रीड़ा अनंगक्रीड़ा है। पुरुष का लिंग (प्रजनन) और स्त्री की योनि कामसेवन के अंग है। उन अंगों को छोड़कर अन्य अंगों में क्रीड़ा करना अनंगक्रीड़ा है। ____5. कामतीव्राभिनिवेश-काम का प्रवृद्ध परिणाम कामतीव्राभिनिवेश है। विषयभोग और कामक्रीड़ा में तीव्र आसक्ति होना है। उसके लिए कामोद्दीपन करने वाली औषधियों का सेवन कर विषय-वासना में प्रवृत्त होना कामतीव्राभिनिवेश है। ___ इन अतिचारों से सदाचार अथवा ब्रह्मचर्यव्रत दूषित होता है। अतः श्रावक को इन अतिचारों से बचना चाहिए। परिग्रहपरिमाणाणुव्रत -आचार्य उमास्वामी ने परिग्रह की परिभाषा 'मूर्छा परिग्रहः' 32 ऐसा किया है। मोहनीयकर्म से उत्पन्न होने वाली ममत्व परिणति मूर्छा है, बाह्यान्तरंग परिग्रहों में होने वाली ममत्व की भावना ही परिग्रह है अथवा धन-धान्यादि बाह्यपदार्थों के प्रति ममत्व, मूर्छा या आसक्ति को परिग्रह कहते हैं। मनुष्य के पास जितनी अधिक सम्पत्ति होती है, उसके पास उतना ही अधिक ममत्व, मूर्छा या आसक्ति होती है। अपनी इसी आसक्ति के कारण आवश्यकता न होने पर भी वह अधिक से अधिक धन प्राप्त करने की कोशिश करता है, किन्तु जैसे-जैसे धन प्राप्त होता है, वैसे-वैसे लोभ भी बढ़ता ही जाता है। वह अपने इसी लोभ के कारण अधिकाधिक धन-संग्रह 322 :: जैनधर्म परिचय For Private And Personal Use Only
SR No.020865
Book TitleJain Dharm Parichay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRushabhprasad Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2012
Total Pages876
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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