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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अप्रशस्त-अधम-निन्दनीय हैं। इन शुभ और अशुभ भावों के अनुसार ही जीव के शुभ कर्म और अशुभ कर्म की व्यवस्था है। जो कभी अशुभ कर्म करता है, वही समझदारी आने पर शुभ कर्म करने लगता है। इसी प्रकार जो शुभ कर्म करता है, वह कभी कुसंगति से अशुभ कर्म भी करने लगता है। इन कर्मों के विविध फलों को देने वाला कौन है? इस प्रश्न का उत्तर है-स्वयं करोति कर्मात्मा स्वयं तत्फलमश्नुते...अर्थात् आत्मा स्वयं कर्म करता है और वह उसके फल को स्वयं प्राप्त करता है। यह प्रत्यक्ष है कि रास्ता देखकर न चलनेवाला पुरुष सामने के पड़े पत्थर से ठोकर खा जाता है और गिर पड़ता है। उसके माथे में चोट स्वयं आ जाती है, यहाँ कोई पत्थर को दोषी माने तो भी उचित प्रतीत नहीं होता तथा यहाँ कोई दूसरा जैसे ईश्वर की भूल के फलस्वरूप उसका माथा नहीं फोडता। जैन मान्यता है कि जीव कर्म स्वेच्छा से करता है, कोई कराता नहीं है। अतः फल भी स्वयं भोगता है, कोई देता नहीं है। अगर फल देने वाला अन्य है तो कर्म कराने वाला भी अन्य है, तब शुभ-अशुभ कर्म कराने वाला भी शुभ-अशुभ कर्म का जिम्मेदार है। फिर वह भी कर्म लिप्त होगा। अत: सिद्ध है कि परमात्मा मात्र ज्ञाता-द्रष्टा है। उपर्युक्त विचार गीता के पंचम अध्यायगत निम्न श्लोकों में भी पाये जाते हैं न कर्तत्वं न कर्माणि लोकस्य सृजति प्रभुः। न कर्मफलसंयोगं स्वभावस्तु प्रवर्तते।।। नादत्ते कस्यचिद् पापं न चैव सुकृतं विभुः। अज्ञानेनावृतं ज्ञानं तेन मुह्यन्ति जन्तवः।। गीता के इन पद्यों का भाव यह है कि सर्वव्यापक परमेश्वर भी न तो मनुष्य के कर्तृत्व का कर्ता है और न उनके कर्मों की सृष्टि करता है। न ही उनके कर्मों के फल का संयोग कराता है- उन्हें कर्मफल देता है। यह सब स्वभाव से प्रवृत्त है। न वह किसी के पाप को ग्रहण करता है और न किसी के पुण्य को ही लेता है। अज्ञान से प्राणियों का ज्ञान आवृत है। इससे मोह के कारण वे ऐसा मानते हैं। वस्तुतः प्राणी स्वयं अपने कर्मों के कर्ता और स्वयं उनके फलभोक्ता हैं। अत: सार यह है कि यदि हम वास्तव में सुखी होना चाहते हैं तो जीवन में स्वयं ऐसा अहिंसक आचरण करें कि किसी भी प्राणी को कष्ट न हो,मेरी कषायें कम हों तथा संयम,तप,ध्यान आदि के माध्यम से मेरे पूर्वोपार्जित बँधे हुए कर्म भी नष्ट हो जाएँ और मैं अपनी शुद्धात्मा का आश्रय पाकर मुक्त हो जाऊँ। मोक्षमार्ग मोक्ष अर्थात् निःश्रेयस की प्राप्ति स्वयं रत्नत्रयात्मक मार्ग पर चलकर ही सम्भव है। सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक् चारित्र इन तीनों को ही रत्नत्रय कहा जाता है,यही 302 :: जैनधर्म परिचय For Private And Personal Use Only
SR No.020865
Book TitleJain Dharm Parichay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRushabhprasad Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2012
Total Pages876
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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