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जैन आचार मीमांसा
डॉ. अनेकान्त कुमार जैन
सम्पूर्ण विश्व में श्रमण संस्कृति अपनी जिन विशेषताओं के कारण गरिमा-मण्डित रही है, उनमें श्रम, संयम और त्याग जैसे आध्यात्मिक आदर्शों का महत्त्वपूर्ण स्थान है। अपनी इन विशेषताओं के कारण ही अनेक संस्कृतियों के सम्मिश्रण के बाद भी इस संस्कृति ने अपना पृथक् अस्तित्व अक्षुण्ण रखा।
जैनधर्म के अन्य नामों में आर्हत तथा श्रमणधर्म प्रमुख रूप में प्रचलित हैं। इसके अनुसार श्रमण की मुख्य विशेषताएँ हैं- उपशान्त रहना, चित्तवृत्ति की चंचलता, संकल्पविकल्प और इष्टानिष्ट भावनाओं से विरत रहकर, समभाव पूर्वक स्व-पर कल्याण करना। इन विशेषताओं से युक्त श्रमणों द्वारा प्रतिपादित, प्रतिष्ठापित और आचरित संस्कृति को श्रमण-संस्कृति कहा जाता है।
यह पुरुषार्थमूलक है। इसकी चिन्तनधारा मूलतः आध्यात्मिक है। अध्यात्म के धरातल पर जीवन का चरम विकास श्रमण-संस्कृति का अन्तिम लक्ष्य है। जीवन का लक्ष्य सच्चे सुख की प्राप्ति है। यह सुख स्वतन्त्रता में ही सम्भव है। कर्मबन्धन युक्त संसारी जीव इसकी पहचान नहीं कर पाता। वह इन्द्रियजन्य सुखों को वास्तविक सुख मान लेता है। श्रमण संस्कृति व्यक्ति को इस भेद-विज्ञान का दर्शन कराकर उसे निःश्रेयस के मार्ग पर चलने के लिए प्रवृत्त करती है। जैन आचार का वैचारिक आधार
आचार शब्द के तीन अर्थ हैं- आचरण, व्यवहार और आसेवन।सामान्यत: सिद्धान्तों, आदर्शों और विधि-विधानों का व्यावहारिक अथवा क्रियात्मक पक्ष आचार कहा जाता है। सभी जैन तीर्थंकरों तथा उनकी परम्परा के अनेकानेक श्रमणों ने स्वयं आचार की साधना द्वारा भव-भ्रमण के दुःखों से सदा के लिए मुक्ति पायी, साथ ही मुमुक्षु जीवों को दुःख निवृत्ति का सच्चा मार्ग बताया। जैनधर्म का आचारपक्ष आत्मानुलक्षी है। ‘अप्पा सो परमप्पा' आत्मा ही परमात्मा है- इस अवधारणा के आधार पर यहाँ परमात्म-पद की प्राप्ति हेतु प्रत्येक मनुष्य को स्वयं अपना पुरुषार्थ करना पड़ता है, किसी दूसरे के या ईश्वर अथवा दैव के भरोसे नहीं। प्राणियों के जैसे विचार और भाव होंगे, वैसे उनके कर्मों का आगमन होगा। प्राणियों के भावों में कुछ भाव प्रशस्त-उत्तम सराहनीय हैं और कुछ
जैन आचार मीमांसा :: 301
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