SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 295
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir निमित्त से होते हैं। पंचम आदि गुणस्थानों का सम्बन्ध जीव के चारित्रिक विकास से है, वे चारित्र मोहनीयकर्म के उपशम, क्षयोपशम और क्षय के निमित्त से उत्पन्न होते हैं । तेरहवाँ और चौदहवाँ गुणस्थान योग - निमित्तक हैं । गुणस्थानों का स्वरूप इस प्रकार है 1. मिथ्यात्व - सहज ज्ञानानन्दी शुद्ध आत्म स्वभाव अपना होने पर भी पता न होने के कारण सुहाता नहीं हैं । यही आत्म - अज्ञानी भाव, पर रुचि - रुझान में इतना तल्लीन होता है कि समझाए जाने पर भी अपने को देहादि रूप ही स्वीकारता है । ज्ञातारूप स्वीकार नहीं पाता । मात्र इतने दोष से ही यह जीव मिथ्यात्वी, अज्ञानी, संसारी, दुःखी और आकुलित रहता है। मिथ्या पद का अर्थ वितथ, व्यलीक, विपरीत और असत्य है। जब तक प्रयोजनभूत जीवादि पदार्थ विषयक श्रद्धा असत्य होती है, तब तक जीवत्व से बाह्य शरीरादि पदार्थ तथा रागादि बाह्य विकृत परिणाम अपने लगते हैं, तभी तक जीव मिथ्यात्व गुणस्थान में रहता है। अनादि से आत्म अज्ञान व भ्रम से ऐसी ही दशा प्रत्येक संसारी अज्ञानी की हो रही है । जैसे पित्त ज्वर से ग्रस्त रोगी को हितकारी मधुर औषधि भी अच्छी नहीं लगती, वैसे ही मिथ्यात्वग्रस्त चित्त में आत्मतत्त्व - पोषक जिनवचन प्रिय नहीं लगते हैं । ऐसा जीव स्व- पर विवेक रहित होता है अर्थात् स्वानुभूतिपूर्वक विपरीत अभिनिवेश (मान्यता) रहित तत्त्वार्थ श्रद्धान नहीं होता तथा सच्चे देव - शास्त्र - गुरु का भी यथार्थ श्रद्धान नहीं होता । मिथ्यात्व के दो भेद हैं- अगृहीत और गृहीत । एकेन्द्रियादि सभी संसारी जीवों के प्रवाह रूप से जो अज्ञान - भाव - मय मिथ्या मान्यता चली आ रही है, जिससे जीव की देहादि जड़ पदार्थों में और उनको निमित्त करते हुए रागादिभावों में एकत्वबुद्धि बनी रहती है, वह अगृहीत मिथ्यात्व है और इसके सद्भाव में जीवादि पदार्थों के यथार्थ स्वरूप को न जानने वाले जीवों द्वारा कल्पित जो अनादि अज्ञान पुष्ट होता है और नयी अन्यथा मान्यताएँ अंगीकार की जाती हैं, वह गृहीत मिथ्यात्व कहलाता है। वह कुगुरु, कुदेव, कुधर्म की निमित्तता में होता है। यह मिथ्याभाव पाँच प्रकार भी बतलाया गया है । विपरीत, एकान्त, विनय, संशय एवं अज्ञान रूप मिथ्यापरिणति वाला । 2. सासादन सम्यग्दृष्टि - सम्यग्दर्शन के विराधन को आसादन कहते हैं, उसके साथ जो भाव होता है, वह सासादन कहलाता है । जिस औपशमिक सम्यग्दृष्टि जीव ने अनन्तानुबन्धी कषाय के उदयवश औपशमिक सम्यक्त्व के काल में कम-से-कम एक समय और अधिक से अधिक छह आवलि काल शेष रहने पर सम्यग्दर्शन रूपी रत्नपर्वत के शिखर से च्युत होकर मिथ्यादर्शन रूपी कण्टकाकीर्ण आकुलतारूप भूमि के सन्मुख 286 :: जैनधर्म परिचय For Private And Personal Use Only
SR No.020865
Book TitleJain Dharm Parichay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRushabhprasad Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2012
Total Pages876
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy