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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अपरिचय के कारण कर्मों से सम्पृक्त होता रहा, बँधता रहा है। अनन्त संसार चक्र में दुखित होता हुआ जीव जब सदुपदेश एवं महाभाग्य की उपस्थिति में सम्यक् पुरुषार्थ से ज्ञानभाव रूप अपने को स्वीकार करता है, तब बन्धमार्ग से बचता है और आनन्द रूप मुक्ति मार्ग को पा जाता है। ऐसा उतार-चढ़ाव होता ही रहता है। __यह उतार-चढ़ाव का क्रम 10वें गुणस्थान तक जारी रहता है तथा दूसरे व ग्यारहवें गुणस्थान से तो केवल अवरोहण/उतार ही होता है, ये जीव के पतनोन्मुख परिणाम हैं। बारहवाँ गुणस्थान आरोहण स्वरूप ही है। अन्ततः जीव 13वें व 14वें गुणस्थान से ऊर्ध्वारोहण करता हुआ मोक्ष-शिखर पर ही पहुँचाता है। इसी को पञ्चसंग्रह प्राकृत अधिकार, 1/3 में आचार्य देव कहते हैं जेहिं दु लक्खिजंते उदयादिसु संभवेहिं भावेहिं । जीवा ते गुणसण्णा णिद्दिट्ठा सव्वदरिसीहिं॥ अर्थात् दर्शनमोहनीय आदि कर्मों की उदय, उपशम, क्षय, क्षयोपशम आदि अवस्थाओं के होने पर उत्पन्न होने वाले जिन भावों से जीव लक्षित किये जाते हैं, उन्हें सर्वदर्शियों ने गुणस्थान कहा है। यों तो परिणामों के उतार-चढ़ाव की अपेक्षा आत्मिक विकास के आरोहणअवरोहण के अनन्त विकल्प सम्भव हैं, फिर भी परिणामों की उत्कृष्टता और जघन्यता की अपेक्षा उन्हें चौदह भूमिकाओं में विभक्त किया गया है, जिन्हें गुणस्थान कहते हैं। जो निम्न हैं __1. मिथ्यादृष्टि, 2. सासादन सम्यग्दृष्टि, 3. सम्यक् मिथ्यादृष्टि (मिश्र), 4. अविरत सम्यग्दृष्टि या असंयत सम्यग्दृष्टि, 5. देशविरत या संयतासंयत, 6. प्रमत्त संयत या प्रमत्तविरत, 7. अप्रमत्त संयत, 8. अपूर्वकरण, 9. अनिवृत्तिकरण, 10. सूक्ष्म साम्पराय, 11. उपशान्त मोह, 12. क्षीण मोह या वीतराग छद्मस्थ, 13. सयोग केवली जिन एवं 14. अयोग केवली जिन। सम्यग्दृष्टि (चतुर्थ गुणस्थान) के साथ प्रयुक्त असंयत विशेषण अपने से पूर्व के गुणस्थानों में असंयतपना व्यक्त करता है। यह अन्त्यदीपक प्रयोग है। इससे ऊपर के गुणस्थान संयमी जीवों के होते हैं तथा सभी सम्यग्दृष्टि होते हैं। प्रमत्तविरत (छठवें गुणस्थान) में प्रयुक्त प्रमत्त शब्द अपने साथ अपने से नीचे की प्रमत्त स्थिति को प्रकट करते हैं। इसी प्रकार बारहवें गुणस्थान के साथ जुड़ा छद्मस्थ शब्द भी अन्त्यदीपक है; क्योंकि आवरण कर्मों के अभाव हो जाने से उससे आगे की भूमिकाओं में छदमस्थता नहीं रहती। गुणस्थानों के उक्त नामों के कारण मोहनीय कर्म और योग हैं। प्रारम्भ के चार गुणस्थानों का सम्बन्ध हमारी दृष्टि (श्रद्धा) से है, जो कि दर्शन मोहनीय कर्म के कर्म सिद्धान्त, गुणस्थान एवं लेश्या :: 285 For Private And Personal Use Only
SR No.020865
Book TitleJain Dharm Parichay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRushabhprasad Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2012
Total Pages876
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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