SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 287
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir कर्म सिद्धान्त, गुणस्थान एवं लेश्या राकेश जैन शास्त्री कर्म सिद्धान्त समझने के लिए प्रथम हमें कर्म शब्द से ही परिचित हो जाना चाहिए। कर्म शब्द अनेक अर्थों में प्रयुक्त हुआ है। जैसे कृत्य, कार्यसम्पादन, व्यवसाय, धार्मिककृत्य, कृत का फल आदि। षट्कारक प्रक्रिया में कर्ता कारक के उपरान्त कर्म कारक, जिसका अर्थ 'कर्तुरीप्सिततमं कर्म' अर्थात् जो कर्ता का पसन्द किया हुआ कार्य है, वह कर्म है। जैसे जीव का ज्ञान, दर्शन आदि रूप सहज कर्म, पुद्गल का स्पर्श, रस आदि रूप सहज कर्म या परिणमन या कार्य। व्याकरण के ज्ञाताओं में कर्म का यह अर्थ बहु-प्रचलित है और तत्त्वज्ञानियों को यह कर्म का स्वरूप हमारे सहज स्वभाव का प्रसिद्ध करने वाला होने से पसन्द आता ___ अन्य अर्थ जो जगज्जन में कर्म बन्धन रूप में प्रसिद्ध है। सभी आत्मवादी, ईश्वरवादी दर्शन इस विषय में यही मान्यता प्रसिद्ध करते हैं कि "जो जस करहिं सो तसु फल चाखा' अर्थात् प्राणी जैसा कर्म करता है, उसे वैसा ही फल भोगना पड़ता है। वास्तव में कर्म का मौलिक अर्थ तो क्रिया ही है। जीव मन-वचन-काय के द्वारा कुछ-नकुछ करता है, यह सब उसकी क्रिया या कर्म है, और मन-वचन-काय ये तीन उसके द्वार हैं। इसे जीव-कर्म या भावकर्म कहते हैं। यहाँ तक तो सभी स्वीकार करते हैं। परन्तु इस भावकर्म से प्रभावित होकर कुछ सूक्ष्म जड़ पुद्गलस्कन्ध जीव के प्रदेशों में प्रवेश पाते हैं, और उसके साथ बँधते हैं। यह बात केवल जैनागम ही बताता है। ये सूक्ष्म स्कन्ध अजीव कर्म या द्रव्य कर्म कहलाते हैं और सूक्ष्म रूप-रसादि के धारक मूर्तिक होते हैं। जैसे-जैसे कर्म (भाव) जीव करता है वैसे ही स्वभाव को लेकर ये द्रव्य कर्म (पुद्गल) उसके साथ बँधते हैं और कुछ काल पश्चात् परिपक्व दशा को प्राप्त होकर उदय (फल) में आते हैं। उस समय इनके प्रभाव से जीव के ज्ञानादि गुण तिरोभूत हो जाते हैं। यही उनका फलदान कहा जाता है। सूक्ष्मता के कारण वे हमें दृष्टिगोचर नहीं हैं, पर अनुभवगोचर 278 :: जैनधर्म परिचय For Private And Personal Use Only
SR No.020865
Book TitleJain Dharm Parichay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRushabhprasad Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2012
Total Pages876
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy