SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 281
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org जीव और कर्म सम्बन्ध Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir नीरज जैन ऊर्ध्व-मध्य और पाताल, इन तीन लोकों की सीमा में यह जगत छह द्रव्यों से बना है । जीव- पुद्गल-धर्म-अधर्म - आकाश और काल, इन छहों द्रव्यों का समुदाय ही जगत, लोक या संसार कहा गया है। 1 लोक स्व-निर्मित और स्व-प्रतिष्ठित है। किसी के द्वारा रचित या किसी के आधार पर टिका हुआ नहीं है, अन्य कोई इसका कर्ता-धर्ता या संहारक नहीं है । लोक सदा से विद्यमान है, अनादि और अ-निधन है, इसका आदि नहीं है और अन्त भी नहीं । न तो यह लोक कभी उत्पन्न किया गया और न ही कभी कोई इसका विनाश कर सकेगा। स्वाधीन और निर्निमित्तक परिणमन द्रव्य का स्वभाव है । इस नैसर्गिक नियम के कारण लोक के घटक ये छहों द्रव्य शुद्ध और स्वाधीन परिणमन करते हैं । यह द्रव्य का स्व-प्रत्यय स्वभाव है । इन छह द्रव्यों में धर्म-अधर्म - आकाश और काल ये चारों अमूर्तिक और निष्क्रिय द्रव्य हैं। इन्द्रियों के माध्यम से इन अमूर्तिक द्रव्यों को जानना, देख पाना, सूँघ पाना और छूना भी सम्भव नहीं होता। तीनों लोकों में ठसाठस भरे होने के कारण इन द्रव्यों में हलनचलन और स्थानान्तरण आदि क्रियाएँ भी नहीं होतीं । ये चारों द्रव्य सदा शुद्ध हैं, कभी विकारी नहीं होते । जीवद्रव्य के संसारी और मुक्त ये दो भेद हैं। मुक्त जीव वे हैं, जो संसार सागर से पार हो गये हैं, उन्हें कभी लौट कर संसार में देह धारण करने नहीं आना है। शुद्ध जीव फिर कभी अशुद्ध नहीं होंगे। शेष दो द्रव्य, चेतन संसारी जीवद्रव्य और अचेतन पुद्गलद्रव्य मूर्तिक द्रव्य हैं। अशुद्ध जीव अनादिकाल से अशुद्ध हैं। उनमें स्व-पर- प्रत्यय परिणमन यानी जीव और पुद्गल दोनों द्रव्यों का मिला जुला परिणमन होता रहता है। वे अनिश्चित काल तक 272 :: जैनधर्म परिचय For Private And Personal Use Only
SR No.020865
Book TitleJain Dharm Parichay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRushabhprasad Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2012
Total Pages876
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy