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गुणस्थान तक के काल में उसके पाँचों भाव एक-साथ पाये जाते है, अन्य दशाओं में नहीं पाये जाते।
सन्दर्भ
1. भाव: चित्परिणामः । गोम्मटसार जीवकांड (जी. प्र.) गाथा 165 2. औपशमिकक्षायिकौ भावौ मिश्रश्च जीवस्य स्वतत्त्वमौदयिकपारिणामिकौ च।
-तत्त्वार्थसूत्र, अ. 2/1 3. द्वि-नवाष्टादशैक-विंशति-त्रि भेदा यथाक्रमम्। -तत्त्वार्थसूत्र 2/2 4. सम्यक्त्वचारित्रे। - तत्त्वार्थ सूत्र 2/3 5. ज्ञान-दर्शन-दान-लाभ-भोगोपभोग-वीर्याणि च। -तत्त्वार्थसूत्र 2/4 6. ज्ञानाज्ञान-दर्शन लब्धयस्चतुस्त्रित्रि-पंच-भेदाः सम्यक्त्वचारित्रसंयमासंयमाश्च ।
-तत्त्वार्थसूत्र 215 7. गति कषाय लिंग मिथ्यादर्शनाज्ञानासंयतासिद्धलेश्याश्चतुस्चतुस्त्रैकैकैकैकषड्भेदाः।
-तत्त्वार्थसूत्र 216 8. जीव भव्याभव्यत्वानि च। -तत्त्वार्थ सूत्र 2/7 9. ओदइया बंधभरा, उवसमखय मिस्सया य मोक्खयरा।
भावो दु पारिणमिओ, करणोभय वज्जिओ होहि ॥ -धवला 7/9 10. भावाः पंचापि जीवस्य, द्वावन्यौ पुद्गलस्य च।
धर्मादीनां तु शेषाणां, स्याद्भाव: पारिणामिकः ॥ ---ज्ञानार्णव 6/40 11. गोम्मटसार, कर्मकांड, गाथा 821
औपशमिक आदि जीव के भाव :: 271
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