SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 271
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir उसे प्रदेशत्व गुण कहते हैं। 'प्रदेशवत्वमपि साधारणं संख्येयासंख्येयानन्त-प्रदेशोपेतत्वात् सर्वद्रव्याणाम् । तदपि कर्मोदयाद्यपेक्षाभावात् पारिणामिकम्।' (आचार्य अकलंक देव, राजवार्तिक, प्रथम 2/7/13) अर्थात् प्रदेशत्व भी सर्वद्रव्य साधारण है, क्योंकि सर्वद्रव्य अपने-अपने संख्यात, असंख्यात वा अनन्त प्रदेशों को रखते हैं। यह कर्मों के उदय आदि की अपेक्षा का अभाव होने से पारिणामिक है। प्रदेशत्व गुण को समझने से यह फलित होता है कि प्रत्येक द्रव्य उसके स्वयं के क्षेत्र में विराजता है, संयोग देखकर व्यवहार से ही यह कहा जाता है कि जल गिलास में है, सोना डिब्बी में है। वस्तुतः तो जल अपने शीतलता, निर्मलता आदि गुणों में तथा सोना अपने पीलेपन, चिकनेपन, भारीपन आदि में विद्यमान रहता है। इस प्रकार प्रत्येक वस्तु सदैव अपने स्व-क्षेत्र में रहती है। ये छह सामान्यगुण हैं, क्योंकि ये सभी द्रव्यों में सदैव पाये जाते हैं । गुण-रहित कोई भी वस्तु/द्रव्य विश्व में नहीं है। सभी द्रव्य गुणवान ही होते हैं। प्रकारान्तर से सामान्य गुण के दस भेद भी हैं- 1. अस्तित्व, 2. वस्तुत्व, 3. द्रव्यत्व, 4. प्रमेयत्व, 5. अगुरुलघुत्व, 6. प्रदेशत्व, 7. चेतनत्व, 8. अचेतनत्व, 9. मूर्तत्व, 10. अमूर्तत्व। इन दस गुणों में से प्रत्येक द्रव्य में आठ-आठ गुण रहते हैं । यतः जीवद्रव्य में अचेतनत्व और मूर्तत्व नहीं है तथा पुद्गल में चेतनत्व और अमूर्तत्व नहीं है। धर्म, अधर्म, आकाश और काल द्रव्यों में चेतनत्व और मूर्तत्व गुण का अभाव है। इस प्रकार प्रत्येक द्रव्य में आठआठ गुण पाये जाते हैं। आपेक्षिक गुणों में नास्तित्व, एकत्व, अन्यत्व, कर्तृत्व, अकर्तृत्व, भोक्तृत्व और अभोक्तृत्व की गणना की जाती है। ... इस प्रकार प्रत्येक द्रव्य गुणों का समूह है। गुणों से द्रव्य की महिमा ज्ञात होती है और द्रव्य को महिमा सम्पन्न देखने से दृष्टि साम्यभाव-युक्त होकर, आनन्दमयी हो जाती है और परमुखापेक्षी-पने का अभाव हो जाता है। सन्दर्भ-ग्रन्थ 1. आलापपद्धति, आचार्य देवसेन 2. तत्त्वार्थराजवार्तिक, भाग-1 एवं भाग-2, आचार्य अकलंकदेव 3. न्यायदीपिका, अभिनव धर्मभूषण यति 4. स्याद्वाद मंजरी, आचार्य मल्लिषेण 5. लघु जैन सिद्धान्त प्रवेशिका, पं. गोपालदास वरैया 6. तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य परम्परा, भाग-1, डॉ. नेमीचन्द्रशास्त्री, ज्योतिषाचार्य 7. जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश , क्षुल्लक जिनेन्द्र वर्णी 8. समयसार भावार्थ, पं. जयचन्द्र छावड़ा 262 :: जैनधर्म परिचय For Private And Personal Use Only
SR No.020865
Book TitleJain Dharm Parichay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRushabhprasad Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2012
Total Pages876
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy