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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir शील, आकृति और अंग- ये-सब जैन परम्परानुसार एकार्थवाचक शब्द हैं। 27 गुणों की नित्यानित्यात्मकता 28 ___पंचाध्यायी में गुणों की नित्यानित्यात्मकता का समर्थन अत्यन्त स्पष्टता के साथ किया गया है अन्यमत-वादी द्रव्य के गुणों को सर्वथा नित्य या सर्वथा अनित्य अथवा कुछ गुणों को सर्वथा नित्य और कुछ गुणों को सर्वथा अनित्य मानते हैं, जबकि जैनदर्शन में जिस प्रकार द्रव्यों को नित्यानित्यस्वरूप माना है, उसी प्रकार गुणों को भी द्रव्य से अभिन्न होने के कारण नित्यानित्यस्वरूप माना है। यह सर्वमान्य है कि गुण नित्य होते हैं और पर्यायें अनित्य होती हैं। यहाँ गुणों को द्रव्य के समान नित्यानित्यात्मक क्यों कहा गया है? ....क्योंकि द्रव्य में गुण सदा विद्यमान रहते हैं, अत: गुणों को भी द्रव्य अपेक्षा नित्य और पर्याय अपेक्षा अनित्य मानना योग्य है। यद्यपि गुण नित्य हैं, तथापि वे बिना प्रयत्न के स्वाभाविकरूप से ही परिणमन करते रहते हैं, परन्तु वह परिणमन उनकी ही अवस्था है, उनसे भिन्न सत्ता नहीं है, इससे भी गुणों की नित्यानित्यात्मकता सिद्ध होती है। "गुण नित्य होते हैं या अनित्य- यह विवाद पुराना है, किन्तु जैन-परम्परा इनमें से किसी भी एक पक्ष को स्वीकार नहीं करती है। जैनमत में द्रव्य के समान गुण भी कथंचित् नित्य और कथंचित् अनित्य होते हैं, क्योंकि गुण, द्रव्य से पृथक् नहीं पाये जाते; इसलिए द्रव्य का जो स्वभाव ठहरता है, गुणों का भी वही स्वभाव प्राप्त होता है। ऐसा नहीं होता कि कोई गुण, वर्तमान में हो और कुछ काल बाद न रहे। जितने भी गुण हैं, वे सदा पाये जाते हैं।... अतः द्रव्य के समान गुणों को सर्वथा नित्य कैसे माना जा सकता है? अर्थात् नहीं माना जा सकता। इससे ज्ञात होता है कि गुण कथंचित् अनित्य भी हैं। इस प्रकार यद्यपि गुण कथंचित् नित्यानित्यात्मक सिद्ध होते हैं, तथापि जो कार्यकारण में सर्वथा भेद मानते हैं, वे गुणों को सर्वथा नित्य और पर्यायों को सर्वथा अनित्य मानने की सूचना करते हैं, पर उनकी यह सूचना ठीक नहीं है। तत्त्वतः विचार करने पर द्रव्य, गुण और पर्याय सर्वथा पृथक्-पृथक् सिद्ध नहीं होते, किन्तु जैन-परम्परा में इनसब में कथंचित् भेद स्वीकार किया गया है, इसलिए जैसे द्रव्य नित्यानित्य प्राप्त होता है, वैसे गुण भी कथंचित् नित्यानित्य सिद्ध होते हैं।" 29 उपर्युक्त विवेचन के उपरान्त हम ऐसा भी कह सकते हैं कि जैनदर्शन में द्रव्यार्थिकनय से द्रव्य-गुण-पर्याय नित्य हैं तथा पर्यायार्थिकनय से द्रव्य-गुण-पर्याय अनित्य हैं- यह कहा है, क्योंकि द्रव्यार्थिकनय का विषय द्रव्य है, अत: द्रव्याश्रित द्रव्य-गुण-पर्याय नित्य हैं तथा पर्यायार्थिकनय का विषय पर्याय है, अतः पर्यायाश्रित द्रव्य-गुण-पर्याय अनित्यता देखता है। द्रव्य-गुण-पर्याय :: 247 For Private And Personal Use Only
SR No.020865
Book TitleJain Dharm Parichay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRushabhprasad Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2012
Total Pages876
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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