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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir जाए, तो ही वह द्रव्य अशुद्ध कहलाएगा, परन्तु द्रव्य कभी अन्य द्रव्यरूप होता नहीं है और न ही अन्य द्रव्य का उसमें कभी प्रवेश होता है; अतः इस द्रव्यदृष्टि से द्रव्य में कभी अशुद्धता नहीं होती। समयसार की छठी गाथा की आत्मख्याति टीका में 'शुद्ध' शब्द का अर्थ करते हुए लिखा है- एष एवाशेषद्रव्यान्तरभावेभ्यः भिन्नत्वेनोपास्यमानः शुद्ध: इत्यभिलप्यते अर्थात् यही समस्त अन्य द्रव्यों के भावों से भिन्नरूप से उपासित होता हुआ 'शुद्ध' कहलाता है। ___ अशुद्धता का सम्बन्ध मिलावट से है, लेकिन मूल द्रव्यों में कभी मिलावट नहीं होती और यदि उनमें मिलावट होना मान भी लें, तो –फिर वह मिलावट कभी दूर नहीं हो सकेगी, क्योंकि फिर तो उसके मूल द्रव्य में ही मिलावट हो गई, अब वह दूर कैसे हो सकती है? पर्यायदृष्टि से पर्याय में अशुद्धता तो स्वीकार की ही गई है, परन्तु जब उस अशुद्धपर्याय को द्रव्य के साथ तन्मय करके देखते हैं, तो ऐसा भी कहा जा सकता है कि द्रव्य भी उस काल में उस पर्याय से तन्मय होने से अशुद्ध है तथा पर्याय की अशुद्धता मिटने पर पर्याय की शुद्धता से द्रव्य तन्मय होने से द्रव्य शुद्ध हुआ – ऐसा भी कह सकते हैं, लेकिन यह-सब कुछ पर्यायदृष्टि से ही है। गुण का विशेष स्वरूप- सूत्रकार आचार्य उमास्वामी के अनुसार- द्रव्याश्रया निर्गुणा गुणाः अर्थात् जो द्रव्य के आश्रय से रहते हैं और स्वयं निर्गुण होते हैं, उन्हें गुण कहते हैं। 22 इसी सूत्र की टीका0 - सर्वार्थसिद्धि, राजवार्तिक, तत्त्वार्थवृत्ति आदि में एक गाथा उद्धृत है, उसमें 'गुण इदि दव्वविहाणं'- ऐसा पाठ है अर्थात् द्रव्य में भेद करनेवाले धर्म को गुण कहते हैं, क्योंकि गुणों के आधार पर ही द्रव्य की महिमा होती है। किस पदार्थ की क्या विशेषता है-यह गुणों के द्वारा ही जाना जा सकता है। ___आचार्य धर्मभूषण ने गुणों को 'यावद्रव्यभाविनः सकलपर्यायानुवर्तिनो गुणाः' 23 कहा है – इसका तात्पर्य यह है कि जब तक द्रव्य रहेगा, तब तक उसके साथ गुण रहेंगे और उसकी समस्त पर्यायों का अनुसरण करेंगे। इसमें यह प्रतिध्वनित होता है कि जैसे द्रव्य परिणमन करते हैं, वैसे उसके गुण भी परिणमन करते हैं। जैसे - द्रव्य नित्यानित्यात्मक हैं, वैसे गुण भी नित्यानित्यात्मक हैं। जैसे- पर्यायों की अपेक्षा द्रव्य अनित्य है, तो उस अपेक्षा से उसके गुण भी अनित्य हैं। इसी व्याख्या का सहारा लेकर गुरुवर्य गोपालदास बरैया ने गुण की परिभाषा इस रूप में दी है - जो द्रव्य के सम्पूर्ण भागों और उसकी सम्पूर्ण अवस्थाओं में पाये जाते हैं, उन्हें गुण कहते हैं24 तथा द्रव्य को अन्वय तो गुण को अन्वयी माना गया है – 'अन्वयिनः गुणः' 25 - ऐसा पाठ है। गुण की परिभाषा में प्रयुक्त 'निर्गुण' शब्द के सम्बन्ध में ऐसा नियम है कि जैसे द्रव्य में गुण पाये जाते हैं, वैसे गुण में अन्य गुण नहीं रहते। अतएव गुण स्वयं गुणरहित रहते हैं, इस प्रकार यद्यपि जो द्रव्य के आश्रय से रहते हैं और स्वयं विशेष रहित हैं, वे गुण हैं। 26 गुण के पर्यायवाची नाम- शक्ति, लक्षण, विशेष, धर्म, रूप, गुण, स्वभाव, प्रकृति, 246 :: जैनधर्म परिचय For Private And Personal Use Only
SR No.020865
Book TitleJain Dharm Parichay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRushabhprasad Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2012
Total Pages876
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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