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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ऋजुसूत्रः' अर्थात् जिस प्रकार सरल सूत डाला जाता है, उसी प्रकार ऋजुसूत्र नय एक समयवर्ती वर्तमान पर्याय को विषय करता है। अतीत और अनागत चूँकि विनष्ट और अनुत्पन्न हैं। अत: उनसे व्यवहार नहीं हो सकता। उसका विषय एक-क्षण-वर्ती वर्तमान पर्याय है। कषायो भैषज्यम्' में वर्तमान कालीन वह कषाय भैषज हो सकती है, जिसके रस का परिपाक हुआ हो, न कि प्राथमिक अल्प रसवाला कच्चा कषाय। इस नय का लक्ष्य मात्र लौकिक व्यवहार नहीं, बल्कि वर्तमान पर्याय मात्र है, क्योंकि वस्तु वस्तुतः वैसी है। इसलिए इस नय में कौआ काला नहीं होता, पलाल जलती नहीं, आदि। वस्तुतः इस नय का विषय सर्वथा पच्यमान, भुज्यमान, क्रियमाण आदि भी नहीं, क्योंकि पच्यमान में भी कुछ अंश तो वर्तमान में पकता है तथा कुछ अंश पक चुकते हैं। इसलिए इसे कथंचित् पच्यमान, कथंचित् भुज्यमान, कथंचित् क्रियमाण आदि कहा जाना चाहिए। इस नय में समानाधिकरण, दाह-दाहक भाव आदि भी नहीं बन सकते, क्योंकि येसब दो पदार्थों से सम्बन्ध रखते हैं, परन्तु यह नय दो पदार्थों के सम्बन्ध को स्वीकार नहीं करता। सम्बन्ध और समवाय सम्बन्ध भी इस नय में नहीं बनते। इस नय की दृष्टि में पान-भोजन आदि कोई व्यवहार नहीं बनता। सफेद वस्तु काली नहीं बन सकती, क्योंकि दोनों का समय भिन्न-भिन्न है। वर्तमान के साथ अतीत का कोई सम्बन्ध नहीं है। अतः सजातीय और विजातीय दोनों उपाधियों से रहित केवल शुद्ध परमाणु ही इस नय का विषय है। अकलंक कहते हैं कि यह नय व्यवहार-लोप की चिन्ता नहीं करता। यहाँ मात्र उसका विषय बताया गया है। व्यवहार तो व्यवहार आदि नयों से सध जाता है। शब्दनय, ऋजुसूत्र नय के द्वारा ग्रहण किये गये विषय को ग्रहण करता है। यह नय व्यंजन-पर्यायों को ग्रहण करता है। वे अभेद तथा भेद दो प्रकार के वचन-प्रयोग को सामने लाते हैं। शब्द-नय में पर्यायवाची विभिन्न शब्दों का प्रयोग होने पर भी उसी अर्थ का कथन होता है, अतः अभेद है। यह नय लिंग, संख्या, साधन और काल आदि व्यभिचार की निवृत्ति करता है। आचार्य अकलंकदेव ने अनेक उदाहरणों से स्पष्ट करते हुए चुटकी ली है कि यह नय लोक और व्याकरणशास्त्र के विरोध की चिन्ता नहीं करता। ___ अनेक अर्थों को छोड़कर किसी एक अर्थ में मुख्यता से रूढ़ होने को समभिरूढ़ नय कहते हैं। जैसे 'गौ' आदि शब्द वाणी, पृथ्वी आदि ग्यारह अर्थों में प्रयुक्त होने पर भी सब को छोड़कर मात्र एक सास्नादि वाली 'गाय' में रूढ़ हो जाता है। आचार्य अकलंक ने सूक्ष्मक्रियाप्रतिपाति, इन्द्र, शक्र, पुरन्दर आदि उदाहरण देकर इस नय को विस्तार से समझाया है। जो वस्तु जिस पर्याय को प्राप्त हुई है, उसी रूप निश्चय कराने प्रमाण, नय और निक्षेप :: 235 For Private And Personal Use Only
SR No.020865
Book TitleJain Dharm Parichay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRushabhprasad Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2012
Total Pages876
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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