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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मध्यस्थ रहता है, पक्षपात नहीं करता, वही शिष्य उपदेश का सम्पूर्ण फल पाता है। अनेक आचार्यों ने निश्चय और व्यवहार नयों को मूल नय मानकर द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक नयों को निश्चय हेतु में साधन माना है। उन्होंने यह भी लिखा है कि निश्चय नय ही द्रव्यार्थिक नय है अथवा द्रव्यार्थिक नय ही निश्चय नय है एवं व्यवहार नय पर्यायार्थिक नय है अथवा पर्यायार्थिक नय ही व्यवहार-नय है। कारण और प्रयोजनों के कारण दोनों में अन्तर पाया जाता है, पर विषय भेद नहीं है। सम्पूर्ण वस्तु के सम्बन्ध में उठे विवाद को प्रमाण के द्वारा और उसके एक अंश के विवाद को नय के द्वारा हल किया जाता है। नयों में सामान्य विषयवस्तु को द्रव्यार्थिक और पर्याय को पर्यायार्थिक विषय करता है। इसी तरह आत्मा के सम्बन्ध में उठे सम्पूर्ण विवाद को निश्चय नय समाप्त करता है। आचार्य अकलंक की दृष्टि में निश्चय और व्यवहार नय द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक नय के आश्रित नय हैं। आचार्य प्रभाचन्द्र और आचार्य अमृतचन्द्र सूरि ने अकलंक के मत का समर्थन किया है। नैगम, संग्रह आदि सप्तनय पूर्व में जैसा कि स्पष्ट किया गया है कि मूल नय दो ही हैं-द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक। आचार्य कुन्दकुन्द, समन्तभद्र एवं सिद्धसेन आदि आचार्यों ने इन्हें ही मूल नय माना है। नैगमादि नय इन्हीं नयों की शाखा-प्रशाखाएँ हैं। समन्तभद्र ने नयों और उपनयों के रूप में बहुनयों की ओर भी संकेत किया है। जैनवाङ्मय में सप्तनय मानने की परम्पराओं के साथ षड् व पंच नयों को मानने वाली परम्पराएँ भी दृष्टिगोचर होती हैं । तत्त्वार्थसूत्र में नैगम, संग्रह, व्यवहार, ऋजुसूत्र, शब्द, समभिरूढ़ और एवंभूतये सप्तनय माने गए हैं। तत्त्वार्थसूत्र के टीकाकारों ने भी सप्तनयों के उल्लेख-पूर्वक टीकाएँ लिखी हैं। इनमें जैसा विवेचन सर्वार्थसिद्धि में किया गया है, प्रायः वैसा ही विवेचन तत्त्वार्थवार्तिक में आचार्य अकलंक द्वारा संग्रह, व्यवहार और ऋजुसूत्र-नय को अर्थनय, नैगम को अर्थ-नय एवं ज्ञान-नय तथा शेष तीन को शब्द-नय माना है। लघीयस्त्रय में नैगम संग्रह आदि चार नयों को अर्थनय एवं शेष शब्द-नय के अन्तर्गत रखे गये हैं। श्वेताम्बर परम्परा में मान्य आचार्य उमास्वाति ने नैगम नय से शब्द तक पाँच ही नय स्वीकार किये हैं। इसी ग्रन्थ में आगे नैगम नय के दो भेद-एकदेश परिक्षेपी और सर्वपरिक्षेपी तथा शब्द नय के भी तीन भेद-साम्प्रत, समभिरूढ़ और एवंभूत भेद किये गए हैं। ____ आचार्य पूज्यपाद का अनुकरण करते हुए आचार्य अकलंक ने अर्थ के संकल्पमात्र को ग्रहण करने वाला नैगमनय बताया है। भाविसंज्ञा में उपकार आदि की आशा बनी रहती है, परन्तु नैगमनय में तो कल्पनामात्र है, इस आशंका का समाधान देते हुए अकलंक प्रमाण, नय और निक्षेप :: 233 For Private And Personal Use Only
SR No.020865
Book TitleJain Dharm Parichay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRushabhprasad Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2012
Total Pages876
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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