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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक के रूप में स्वतन्त्र रूप से श्रुतज्ञान में व्यवस्थित हैं। ज्ञान-नय, अर्थ-नय एवं शब्द-नय शास्त्रों में ज्ञान-नय, अर्थ-नय और शब्द-नय के रूप में नयों का तीन तरह से भी विभाजन पाया जाता है, जो विशेष रूप से सप्तनयों में किया गया है। जब प्रत्येक पदार्थ को अर्थ, शब्द और ज्ञान के आकारों में बाँटते हैं, तब उनका ग्राहक-ज्ञान भी स्वभावत: तीन श्रेणियों में विभक्त हो जाता है, जिन्हें क्रमश: अर्थ-नय, शब्द-नय और ज्ञान-नय कहा जाता है। नैगम-नय ज्ञान-नय और अर्थ-नय दोनों है। उल्लेखनीय है कि सप्तभंगी की प्रक्रिया द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक दोनों नयों की विवक्षा से होती है और ये नय संग्रह और व्यवहार-रूप होते हैं। अर्थ-नय और शब्द-नय रूप से भी इनके विभाग हैं। संग्रह, व्यवहार और ऋजुसूत्र अर्थनय हैं तथा शब्द, समभिरूढ़ और एवंभूत शब्द-नय हैं। अवगत हो कि नय द्वारा सप्तभंगी के विवेचन में अकलंक ने नैगमनय तथा ज्ञाननय का उल्लेख नहीं किया है। आप्तमीमांसा भाष्य में भी अकलंक ने 'द्रव्यपर्यायस्थानः संग्रहादिनयः' लिखकर छह नयों को मानने की ओर संकेत किया है। ज्ञात हो कि आचार्य सिद्धसेन ने संग्रह, व्यवहार आदि छह ही नय माने हैं। आ. अकलंक ने सप्तनयों के विवेचन में नैगमनय का पूर्वपरम्परानुसार ही विवेचन किया है। 'लघीयस्त्रय' ग्रन्थ में भी नैगम, संग्रह आदि सप्तनयों का विवेचन किया गया है। प्रतीत होता है कि नैगमनय के विषय में अस्तित्व की स्पष्ट सूचना न होने के कारण उसे सप्तभंगी के प्रसंग में छोड़ दिया गया है। आश्रितनयः निश्चय और व्यवहार आगमिक काल में अध्यात्म-परक विवेचन निश्चय और व्यवहार नयों से होता रहा है। एवंभूत और व्यवहार नयों से भी उक्त नयों का प्रयोजन सिद्ध हो जाता है। अध्यात्म ग्रन्थों में नैगमादि सात नयों के स्थान पर निश्चय और व्यवहार नयों के द्वारा विवेचन उपलब्ध होता है। दोनों पद्धतियाँ सिद्धान्त का ही निर्वचन करती हैं। दोनों में अन्तर शरीर और आत्मा जैसा है। एक दृष्टि शुद्ध सिद्धान्त का वर्णन करती है तथा दूसरी दृष्टि सिद्धान्त तक पहुँचने का मार्ग प्रशस्त करती है। दोनों नयों का प्रयोग प्रतिपाद्य की योग्यता के अनुसार होता है। आचार्य कुन्दकुन्द ने स्पष्ट किया है कि परमभाव शुद्धस्वभाव का अवलोकन करने वाले पुरुषों के द्वारा शुद्धस्वरूप का वर्णन करने वाला शुद्धनय निश्चय नय है और जो अपरमभाव में स्थित हैं, वे व्यवहार नय से उपदेश देने के योग्य हैं। किसी एक नय के पक्षपातियों को आचार्य अमृतचन्द्रसूरि के ये वचन सदैव स्मरण रखना चाहिए कि जो शिष्य व्यवहार और निश्चय को यथार्थरूप से जानकर 232 :: जैनधर्म परिचय For Private And Personal Use Only
SR No.020865
Book TitleJain Dharm Parichay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRushabhprasad Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2012
Total Pages876
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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