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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आवश्यक बताने के साथ उसका वर्गीकरण पूर्वपरम्परा का अनुकरण है तथा नय-विवेचन के लिए शास्त्रीय-दार्शनिक पद्धतियों के लिए प्रमुख आधार है। विभिन्न आचार्यों द्वारा दी गयीं नय की कतिपय परिभाषाएँ अग्रलिखित हैं आचार्य समन्तभद्र ने हेतु का प्रयोग कर नय के तार्किक स्वरूप का सर्वप्रथम सूत्रपात किया था। उन्होंने स्याद्वाद रूप परमागम से विभक्त हुए अर्थ-विशेष का सधर्म द्वारा साध्य के साधर्म्य से जो अविरोध-रूप से व्यंजक होता है, उसे नय कहा है। आचार्य अकलंक ने इसकी व्याख्या में लिखा है कि नय का स्वरूप अनुमान और हेतु के बिना समझना कठिन है। स्याद्वाद-रूप परमागम से विभक्त हुए अर्थ-विशेष में जब एकलक्षण-रूप हेतु घटित हो जाये, तब वह नय कहलाता है। स्याद्वाद इत्यादि के द्वारा अनुमित अनेकान्तात्मक-अर्थ-तत्त्व दिखाता है कि उससे नित्यत्वादि विशेष उसके अलग अलग प्रतिपादक हैं, ऐसा जो है, वही नय कहा जा सकता है। अनेकान्त अर्थ का ज्ञान प्रमाण है और उसके एक अंश का ज्ञान नय है, जो दूसरे धर्मों की भी अपेक्षा रखता है। __ आचार्य पूज्यपाद ने प्रमाण से नय की उत्पत्ति मानकर पूर्वाचार्यों द्वारा प्रतिपादित पारम्परिक नय के स्वरूप का उल्लेखपूर्वक लिखा है – 'प्रगृह्य प्रमाणतः परिणतिविशेषादर्थावधारणं नयः' अर्थात् प्रमाण से जानकर अनन्तर किसी एक अवस्था द्वारा पदार्थ का निश्चय करना नय है। उन्होंने तत्त्वार्थसूत्र के नय विवेचक सूत्र की व्याख्या के प्रसंग में लिखा है कि 'सामान्यलक्षणं तावद् वस्तुन्यनेकान्तात्मन्यविरोधेन हेत्वर्पणात्साध्यविशेषस्य याथात्म्यप्रापणप्रवणः प्रयोगो नयः' आचार्यश्री ने नय के इस स्वरूप में साध्य, साधन, हेतु, पक्ष और अविनाभाव-अन्यथानुपपन्नत्व-अविरोध आदि का प्रयोग कर दार्शनिक युग में पूर्ण विकसित लक्षण के मानक के अनुसार नय का स्वरूप स्थिर किया है। उन्होंने लिखा है कि अनेकान्तात्मक वस्तु में विरोध के बिना हेतु की मुख्यता से साध्यविशेष की यथार्थता को प्राप्त कराने में समर्थ-प्रयोग नय है। आचार्य अकलंकदेव ने नय के स्वरूप प्रतिपादन में पूर्वाचार्यों का ही अनुकरण किया है। वे लिखते हैं कि-'प्रमाणप्रकाशितार्थ-विशेषप्ररूपको नयः'-प्रमाण द्वारा प्रकाशित पदार्थ का विशेष निरूपण करने वाला नय है और यह नय ही व्यवहार का हेतु होता है। एक स्थान पर सम्यगेकान्त को नय और सम्यगनेकान्त को प्रमाण कहा है। आ. पूज्यपाद की तरह आ. अकलंकदेव ने भी अपने इस नय के स्वरूप के समर्थन में पूर्वाचार्यों का वाक्य 'सकलादेशो प्रमाणाधीनः विकलादेशो नयाधीनः' लिखकर उसकी प्रामाणिकता सिद्ध की है। यहाँ सम्यगेकान्त और सम्यगनेकान्त में भ्रम पैदा न हो, इसलिए इनके अर्थ का स्पष्टीकरण आवश्यक है। 226 :: जैनधर्म परिचय For Private And Personal Use Only
SR No.020865
Book TitleJain Dharm Parichay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRushabhprasad Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2012
Total Pages876
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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