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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir है। वस्तुतः नय का प्रमाण का अंश होने के कारण नय में भी प्रमात्व अवश्य रहेगा। प्रमा का करण प्रमाण कहलाता है। जो साधकतम हो, वह करण होता है। प्रमा या जानने रूप क्रिया जैनागम में चेतन मानी गयी है। इसलिए उसमें साधकतम उसी का गुण ज्ञान ही माना जा सकता है। इस दृष्टि से नय क्रिया का भी साधकतम उसी का गुण ज्ञानांश होगा। जब 'नीयते य इति नयः' इस तरह कर्म साधन रूप व्युत्पत्ति की जाएगी, तब नय का अर्थ यह होगा कि नयों के द्वारा अर्थ ही जाने जाते हैं। आचार्य अकलंक ने ज्ञाताओं की अभिसन्धि प्रमाण और प्रमिति के एक-देश का सम्यक् निर्णय कराने वाले को नय कहा है। इस तरह नय भी ज्ञान की वृत्ति रूप सिद्ध होता है। नय का स्वरूप नय के स्वरूप विषयक सभी आचार्यों के मन्तव्य एक ही अर्थ को प्रकट करते हैं कि इन्द्रिय-चेतना से होने वाला ज्ञान द्रव्य के समग्र-स्वरूप का ज्ञान नहीं करा सकता, परन्तु वह द्रव्यांश को जानने के कारण ज्ञानांश अवश्य है। उस अंश को ही सम्पूर्ण समझकर विवाद का विषय न बनाया जाये। इसलिए विभिन्न शब्दावलियों का प्रयोग कर आचार्यों द्वारा नय के तार्किक स्वरूप प्रस्तुत किये गये और यह सिद्ध किया गया कि अनन्तस्वरूप वाली वस्तु के आंशिक स्वरूप को स्वीकार करने के साथ उसके अन्य अंशों की सत्ता को भी स्वीकार करना नय-दृष्टि है तथा सत्यपथ का अनुचरण है। दार्शनिक-तार्किक युग में नय को सम्यगेकान्त, प्रमाणांश, श्रुतांश, वक्ता या ज्ञाता का अभिप्राय आदि के रूप में परिभाषित कर उनका तार्किक विश्लेषण प्रस्तुत किया गया। ज्ञात हो कि आगमिक और दार्शनिक युग के मध्यवर्ती कड़ी को जोड़ने वाले आचार्य कुन्दकुन्द ऐसे महान् आचार्य थे, जिन्होंने नय-विषयक चिन्तन को नया आयाम दिया। यही कारण है कि उनके पश्चात् नय पर स्वतन्त्र चर्चाएँ होने लगीं। आचार्य कुन्दकुन्द के मन्तव्यों का अन्यथा अर्थ न किया जाये, एतदर्थ उनके ग्रन्थों पर आत्मख्याति, तात्पर्यवृत्ति आदि टीकाओं की रचनाएँ की गयीं। जैनवाङ्मय में नय स्वरूप के तीन रूप दृष्टिगोचर होते हैं-आध्यात्मिक : आगमिक, शास्त्रीय दार्शनिक और स्वतंत्र । कुन्दकुन्द के ग्रन्थों में यद्यपि द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक नयों के रूप में ज्ञेय-शास्त्रीय दृष्टि से भी विवेचन पाया जाता है, परन्तु उनका निश्चय और व्यवहार नयों के द्वारा मुख्य प्रतिपाद्य आध्यात्मिक रहा है। उनकी दृष्टि से तत्त्वज्ञ होने के साथ हेय-उपादेय को भी समझना आवश्यक है, जो निश्चय और व्यवहार नय के बिना सम्भव नहीं है। ये दोनों नय सापेक्ष हैं। भेद-मूलक व्यवहार-दृष्टि नय है। तत्त्वार्थसूत्रकार ने नय की स्पष्ट परिभाषा न देकर पदार्थ के अधिगम के लिए उसे प्रमाण, नय और निक्षेप :: 225 For Private And Personal Use Only
SR No.020865
Book TitleJain Dharm Parichay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRushabhprasad Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2012
Total Pages876
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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