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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir में अपूर्व पद का समावेश कर स्व और अपूर्व अर्थ के व्यवसायी ज्ञान को प्रमाण माना है। आप्तमीमांसाभाष्य/अष्टशती पर अष्टसहस्री महाभाष्य लिखने वाले आचार्य विद्यानन्दि ने प्रमाण के लक्षण में अनधिगत और अपूर्व विशेषण नहीं दिया है। इस विषय में उनका मन्तव्य है कि ज्ञान चाहे अपूर्व पदार्थ को जाने या गृहीत अर्थ को, वह स्वार्थव्यवसायात्मक होने से प्रमाण ही है। इसके अतिरिक्त उन्होंने प्रमाणपरीक्षा-ग्रन्थ में सम्यज्ञान को प्रमाण बताकर उसे स्वार्थव्यवसायात्मक सिद्ध किया है। विद्यानन्दि के परवर्ती आचार्यों की परम्परा में हेमचन्द्र, धर्मभूषण आदि आचार्यों ने भी सम्यग्ज्ञान या सम्यक्-अर्थ-निर्णय को ही प्रमाण स्वीकृत किया है। प्रमाण-भेद की ऐतिहासिक परम्परा दिगम्बर आगमिक साहित्य में कुन्दकुन्द तक पंचज्ञानों की विस्तृत चर्चा पायी जाती है तथा उनके प्रत्यक्ष-परोक्ष भेद भी पाये जाते हैं, परन्तु उनका प्रमाणों में वर्गीकरण नहीं पाया जाता। कुन्दकुन्द के बाद सूत्रकार उमास्वामी ने प्रमाण का निर्वचन करने के साथ ज्ञानों का प्रत्यक्ष और परोक्ष रूप में वर्गीकरण भी किया। उन्होंने मति और श्रुत को परोक्ष प्रमाण तथा अवधि, मनःपर्यय और केवलज्ञान को प्रत्यक्ष कहा। यह विभाजन आगमिक परम्परा से हटकर प्रतीत होता है, परन्तु समीक्षक विद्वानों की दृष्टि में यह विभाजन उनके द्वारा अन्य दर्शनों के प्रमाण-निरूपण के साथ मेल बैठाने और आगमिक समन्वय के लिए ज्ञान-कारणों की सापेक्षता और निरपेक्षता पर आधारित था। मति, स्मृति, संज्ञा-प्रत्यभिज्ञान, चिन्ता-तर्क और अभिनिबोध-अनुमान को मतिज्ञान के अन्तर्गत प्रमाणान्तर मानकर एवं उन्हें परोक्ष प्रमाण कहकर प्रमाण-भेद व्यवस्था के लिए उन्होंने उत्तरवर्ती सभी जैन तार्किकों का मार्ग प्रशस्त किया। समन्तभद्र के ग्रन्थों में पंचज्ञानों में केवलज्ञान के अतिरिक्त अन्य ज्ञानों का स्पष्ट उल्लेख नहीं मिलता। तत्त्वार्थसूत्रकार की तरह उन्होंने प्रत्यक्ष और परोक्ष के रूप में प्रमाण का वर्गीकरण भी नहीं किया। उनका वर्गीकरण आगमिक परम्परा के अनुसार विषयाधिगम के क्रम और अक्रम पर आधारित था। इसप्रकार समन्तभद्र की दृष्टि में प्रमाण का प्रथम भेद युगपत्सर्वभासनरूप तत्त्वज्ञानकेवलज्ञान और दूसरा प्रमाण भेद स्याद्वाद नय से संस्कृत क्रमभावी ज्ञान है। ध्यातव्य है कि समन्तभद्र ने केवलज्ञान को साक्षात् और स्याद्वाद को असाक्षात् कहा। इसके वृत्तिकार आचार्य वसुनन्दि का मत है कि स्याद्वाद और केवलज्ञान ये दो प्रमाण हैं। उन्होंने साक्षात् का अर्थ प्रत्यक्ष और असाक्षात् का अर्थ अप्रत्यक्ष किया है। अकलंक द्वारा भी समन्तभद्रोक्त प्रमाण-भेद की व्याख्या में प्रत्यक्ष और परोक्ष भेदों की ओर संकेत किया गया जान पड़ता है। प्रत्यक्ष और परोक्ष प्रमाणों के अन्तर्गत मति आदि ज्ञानों के विभाजन विषयक तत्त्वार्थसूत्रकार की अवधारणा के अनुकरण की स्पष्टोक्ति प्रमाण, नय और निक्षेप :: 219 For Private And Personal Use Only
SR No.020865
Book TitleJain Dharm Parichay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRushabhprasad Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2012
Total Pages876
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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