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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir हेमचन्द्रसूरि ने स्पष्ट कहा है-सर्वार्थग्रहणं मनः (प्रमाणमीमांसा, 1.1.24)। यह प्रत्यक्ष 'मनःपर्यय ज्ञान' रूप प्रत्यक्ष से भिन्न है, क्योंकि मनःपर्यय ज्ञान सीधा आत्मा के द्वारा होता है, उसमें मन करण नहीं बनता, जबकि अनिन्द्रिय प्रत्यक्ष मन के माध्यम से होता है। इसमें इन्द्रियाँ सहयोगी नहीं होती हैं। इन्द्रिय एवं मन के माध्यम से होने वाले सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष की चार अवस्थाएँ हैं-अवग्रह, ईहा, अवाय एवं धारणा। अवग्रह भी दो प्रकार है-व्यंजनावग्रह एवं अर्थावग्रह। पदार्थ के साथ इन्द्रिय का सम्बन्ध होने पर व्यंजनावग्रह होता है। अर्थावग्रह में पदार्थ का ग्रहण होता है कि यह कुछ है। चक्षु-इन्द्रिय एवं मन-पदार्थ से दूर रहकर, असम्बद्ध रहकर अथवा अप्राप्यकारी होकर पदार्थ को जानते हैं, अतः उनमें व्यंजनावग्रह नहीं होता, मात्र अर्थावग्रह होता है। शेष इन्द्रियों के प्रत्यक्ष में दोनों प्रकार के अवग्रह होते हैं। अवगृहीत अर्थ के विषय में विशेष जानने की चेष्टा ईहा है। ईहा-ज्ञान संशयपूर्वक होते हुए भी संशय-रूप नहीं होता, क्योंकि यह संशय की भाँति दो पलड़ों में नहीं झूलता। एक ओर झुका रहता है, यथा-ये शब्द पुरुष के होने चाहिए-यह ईहा-ज्ञान है। ईहित पदार्थ का निर्णय अवाय है। ये शब्द पुरुष के ही हैं-इसप्रकार का निश्चयात्मक- ज्ञान अवाय है। अवायरूप में निर्णीत ज्ञान के संस्कार को धारणा कहते हैं। सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष में अवग्रह, ईहा, अवाय एवं धारणा का निश्चित क्रम है, किन्तु ये इतनी शीघ्रता से होते हैं कि प्रमाता को इनके क्रम का भान ही नहीं रहता। जानने की इस प्रक्रिया का प्रतिपादन शिक्षण-विधि में अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है। जब जानने की प्रक्रिया अवग्रह से ईहा, अवाय एवं धारणा तक पहुँचती है, तो छात्र को पढ़ा हुआ अच्छी तरह स्थिर हो जाता है। जैनदर्शन की इस ज्ञान-विधि का शिक्षा मनोविज्ञान में विवेचन अपेक्षित है। पारमार्थिक-प्रत्यक्ष ___ पारमार्थिक-प्रत्यक्ष ही जैनदर्शन में मुख्य प्रत्यक्ष है, क्योंकि वह सीधे आत्मा के द्वारा होता है। यह मात्र आत्मसापेक्ष एवं निश्चयात्मक-प्रत्यक्ष-ज्ञान है। इसमें किसी इन्द्रिय, मन आदि की सहायता नहीं रहती। यह पूर्णतः एवं आंशिक रूप से हो सकता है। जब पूर्णतः सकल पदार्थों का प्रत्यक्ष होता है, तो उसे सर्व-प्रत्यक्ष या सकलप्रत्यक्ष तथा आंशिक रूप से पदार्थों एवं उनकी पर्यायों के प्रत्यक्ष को देश-प्रत्यक्ष या विकल-प्रत्यक्ष के नाम से जाना जाता है। सर्व प्रत्यक्ष का एक ही भेद है- केवलज्ञान और विकल प्रत्यक्ष के दो भेद हैं- अवधिज्ञान एवं मनःपर्ययज्ञान। ___1. केवलज्ञान-जिस ज्ञान में विश्व के समस्त चराचर पदार्थों एवं उनकी त्रैकालिक समस्त पर्यायों का हस्तामलकवत् स्पष्ट एवं निश्चयात्मक बोध होता है, वह केवलज्ञान न्याय :: 203 For Private And Personal Use Only
SR No.020865
Book TitleJain Dharm Parichay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRushabhprasad Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2012
Total Pages876
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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