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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रत्यक्ष प्रमाण विशद या स्पष्ट निश्चयात्मक ज्ञान को जैन दार्शनिकों ने प्रत्यक्ष प्रमाण कहा है। यह प्रत्यक्ष प्रमाण अनुमान आदि परोक्ष प्रमाणों की अपेक्षा विशेष प्रकाशक होता है। प्रत्यक्ष प्रमाण से प्रमेय-अर्थ का ज्ञान करते समय अन्य प्रमाण की आवश्यकता नहीं होती, जबकि स्मृति, अनुमान आदि परोक्ष-प्रमाण प्रत्यक्ष-प्रमाण के आश्रित होते हैं। प्रत्यक्ष की एक अन्य विशेषता और है, वह है प्रमेय का इदन्तया (यह पुस्तक है आदि) प्रतिभास होना।' इदन्तया प्रतिभास एक प्रकार से पदार्थ का साक्षात् ज्ञान है। ___ आगमसरणि के अनुसार तत्त्वार्थसूत्र एवं उसकी टीकाओं में इन्द्रिय तथा मन की सहायता से होने वाले ज्ञान को परोक्ष कहा गया है। तदनुसार आगम-वर्णित पाँच ज्ञानों में से अवधि, मन:पर्यय एवं केवलज्ञान ही प्रत्यक्ष की कोटि में आते हैं, मति एवं श्रुतज्ञान परोक्षज्ञान की श्रेणी में समाविष्ट होते हैं।2 प्रमाण-मीमांसीय रचनाओं के युग में जैन दार्शनिकों ने न्याय, मीमांसा, बौद्ध आदि दर्शनों के साथ प्रमाण-चर्चा में भाग लेने के लिए इन्द्रियज्ञान को भी प्रत्यक्ष की कोटि में लेना आवश्यक समझा। अतः जिनभद्र एवं अकलंक ने सम्भवतः 'नन्दीसूत्र' में उल्लिखित इन्द्रिय-प्रत्यक्ष एवं नो-इन्द्रियप्रत्यक्ष भेदों के आधार पर इन्द्रिय एवं मन के निमित्त से होने वाले ज्ञान को सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष नाम दिया और उन्हें प्रत्यक्ष-प्रमाण की कोटि में प्रतिष्ठित कर दिया। पारमार्थिकप्रत्यक्ष के भेदों का आगम से कोई विरोध नहीं है। अब पहले सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष के दोनों भेदों पर विचार किया जा रहा है। सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष इन्द्रिय-प्रत्यक्ष- श्रोत्र, चक्षु आदि इन्द्रियों के निमित्त से होने वाले बाह्य पदार्थों के स्पष्ट ज्ञान को इन्द्रिय-प्रत्यक्ष कहते हैं। यह प्रत्यक्ष जब संशय, विपर्यय आदि दोषों से रहित एवं निश्चयात्मक होता है, तभी प्रमाण कहा जाता है, अन्यथा वह प्रत्यक्षाभास कहलाता है। जैनदर्शन की यह मान्यता है कि श्रोत्र, घ्राण, रसना एवं स्पर्शन,-ये चार इन्द्रियाँ पदार्थ को प्राप्त कर अर्थात् पदार्थ का संयोग प्राप्त कर पदार्थ का ज्ञान कराती हैं। इसलिए ये चारों प्राप्यकारी हैं, किन्तु चक्षु इन्द्रिय एवं मन पदार्थ से स्पृष्ट हुए बिना पदार्थ से दूर रहकर उसका ज्ञान कराने में समर्थ हैं, अतः ये दोनों अप्राप्यकारी हैं। 2. अनिन्द्रिय प्रत्यक्ष-मन को जैनदर्शन में अनिन्द्रिय कहते हैं। अत: मन के द्वारा होने वाले बाह्य घट, पट आदि या भीतरी सुख-दुःख आदि पदार्थों के स्पष्ट एवं निश्चयात्मक ज्ञान को अनिन्द्रिय-प्रत्यक्ष कहा जाता है। न्यायदर्शन में जहाँ मन आत्मा से संयुक्त होता है एवं इन्द्रियाँ मन से संयुक्त होती हैं, तभी बाह्यार्थ का ज्ञान होता है, वहाँ जैनदर्शन में आत्मा को मात्र मन के द्वारा भी बाह्यार्थ का प्रत्यक्ष ज्ञान करने वाला माना गया है। 202 :: जैनधर्म परिचय For Private And Personal Use Only
SR No.020865
Book TitleJain Dharm Parichay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRushabhprasad Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2012
Total Pages876
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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