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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir जिसका लक्ष्य जीव को मोक्षमार्गी बनाना रहा है। अतः वस्तु तत्त्व को इन संज्ञाओं और इस प्रकार के वर्गीकरणों में अन्य किसी दर्शन ने विवेचित नहीं किया। इतना विशेष है कि मोक्षतत्त्व या मोक्ष पदार्थ तथा उसके साधन के विषय में अन्य भारतीय दर्शनों में भी विवेचन प्राप्त होता है, इनमें प्रायः सभी दर्शन किसी न किसी रूप में मोक्ष को स्वीकार करते हैं। जैनदर्शन समस्त कर्मों से मुक्ति को मोक्ष मानता है, तो बौद्धदर्शन तृष्णा के क्षयरूप अभावात्मक पक्ष को मोक्ष मानता है। भौतिकवादी चार्वाकदर्शन चूंकि आत्मा को ही नहीं मानता, तो मोक्ष किसको होगा, फिर भी उसने मृत्यु को ही मोक्ष की संज्ञा दी है। सांख्य दर्शन में आत्मा के कैवल्य भाव को मुक्ति माना गया है। योग दर्शन भी ऐसा ही मानता है। न्यायदर्शन 21 प्रकार के दुखों से आत्यन्तिक निवृत्ति को ही मोक्ष कहता है, जबकि वैशेषिकदर्शन आत्मा के ज्ञानादि गुणों के उच्छेद हो जाने को मोक्ष मानता है। मीमांसादर्शन में स्वर्ग को ही मोक्ष माना गया है और इसका स्वरूप वे धर्म-अधर्म का नाश होने पर शरीर का नाश होना मोक्ष मानते हैं। जबकि वेदान्तदर्शन में आप्तभावमोक्ष। भगवान के सान्निध्य में रहना। सत्-चिद् आनन्दावस्था को मोक्ष माना गया है। इस मोक्ष के साधन के रूप में जहाँ जैनदर्शन सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र रूप रत्नत्रय की एकता को मानता है। वहीं बौद्धदर्शन सम्यग्दृष्टि आदि अष्टांगिक मार्ग को मोक्ष का साधन मानता है। चार्वाक तात्त्विक रूप में मोक्ष को ही नहीं मानता, अतः मोक्ष के साधन भी नहीं मानता। सांख्य-दर्शन व्यक्ताव्यक्त विवेक ज्ञान को ही मोक्ष का साधन मानता है, जबकि इसका सहयोगी योगदर्शन ज्ञान की पराकाष्ठा रूप वैराग्य ऋतम्भरा प्रज्ञा असम्प्रज्ञात समाधि को मोक्ष का साधन मानता है। न्यायदर्शन में 16 प्रकार के पदार्थों के तत्त्वज्ञान से मोक्षप्राप्ति मानी गयी है। वैशेषिक दर्शन में द्रव्यादि 6 पदार्थों के यथार्थ ज्ञान से मोक्ष की प्राप्ति बताई गयी है। मीमांसा दर्शन में वेदविहित कर्म को मोक्ष का मुख्य-साधन माना गया है और आत्मज्ञान को उसका सहकारी माना गया है जबकि वेदान्त दर्शन में श्रवण-मनन-निदिध्यासन आदि को मोक्ष का साधन माना गया है। इनके अतिरिक्त जैनदर्शन प्रातिपादित तत्त्वमीमांसा या पदार्थमीमांसा का अन्यत्र कहीं तुलना-योग्य विवेचन प्राप्त नहीं होता है। अतः ‘पंचास्तिकाय', 'सप्ततत्त्व' एवं 'नवपदार्थ' के विवेचन को हम जैनदर्शन की मौलिक अवधारणा एवं दार्शनिक विवेचना कह सकते हैं। इनका इस रूप में इन दृष्टियों से प्रयोग एवं नामकरण अन्य किसी भी दर्शन में उपलब्ध नहीं होने से तुलनात्मक विवेचन सम्भव नहीं है। अन्ततः मात्र 'द्रव्यमीमांसा' ही ऐसी विवेचना बचती है, जिसका हम जैनदर्शन तत्त्व-मीमांसा :: 171 For Private And Personal Use Only
SR No.020865
Book TitleJain Dharm Parichay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRushabhprasad Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2012
Total Pages876
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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