SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 179
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भले ही भयभीत हो, किन्तु पुण्य का आकर्षण उसे कभी भी मोक्षमार्गी नहीं बनने देगा। तीर्थंकर भी अपना हित साधन तभी कर पाते हैं, जब वे पुण्यभावों व पुण्य के उदय दोनों से अलिप्त रहकर आत्म-स्वरूप में मग्न रहते हैं। प्रमाण-स्वरूप समवसरणरूपी सर्वाधिक वैभव सम्पन्न पुण्यशाली धर्मसभा में वे कभी देह से भी उसे स्पर्श नहीं करते हैं, अपितु उससे चार अ - अंगुल - प्रमाण ऊपर रहकर अलिप्तता एवं निस्पृहता को प्रमाणित करते हैं । चूँकि सप्ततत्त्व एवं नवपदार्थ विवेचन का मूल लक्ष्य मोक्ष-मार्ग पर जीव को अग्रसर करना है, अतएव पुण्य-पाप का हेयत्व ही यहाँ विवक्षित एवं ग्राह्य है । इन दोनों की भेददृष्टि तथा किसी एक की सापेक्ष हेयता - उपादेयता यहाँ न तो विवक्षित है और न ही ग्राह्य है 1 यहाँ यह तथ्य ध्यातव्य है कि प्रत्येक दर्शन का प्रवर्तन किसी न किसी विशिष्ट लक्ष्य को लेकर उसके साधन- - हेतु होता है । सामान्यतः व्यक्ति दुःख के विनाश एवं सुख की प्राप्ति के लक्ष्य से दर्शन की शरण में आता है । अतः प्रायः प्रत्येक भारतीय दर्शन का लक्ष्य 'मोक्ष' रहा है तथा उसकी प्राप्ति के उपाय के प्रतिपादन में उसकी दार्शनिकता चरितार्थ हुई है। अतएव जैनदर्शन भी मोक्ष के लक्ष्य को लेकर चला है और उसकी तत्त्व-मीमांसा इसी लक्ष्य के साधन के रूप में प्रतिफलित हुई है और इसी का एक अन्यतम प्रमाण है, पुण्य-पाप के हेयत्व प्रतिपादनार्थ प्रस्तुत नवपदार्थ - विवेचन । यदि पुण्य-पाप की हेयता नहीं बतानी होती, तो नवपदार्थ - विवेचन का प्रकल्प ही नहीं होता, मात्र सप्त तत्त्व मीमांसा में ही बात पूरी हो जाती । अस्तु, जैनाभिमत तत्त्व-मीमांसा के चारों वर्गीकरणों - पंचास्तिकाय, षद्द्रव्य, सप्ततत्त्व एवं नवपदार्थ के विवेचन के उपरान्त यह विषय भी तुलनात्मक रूप से समीक्षणीय है कि जैन दर्शन अपनी तत्त्व - मीमांसा में जो-जो बातें प्रतिपादित करता है; अन्य भारतीय दर्शनों में भी क्या वे इसी रूप में हैं, या नामतः, लक्षणतः या फलतः भिन्न हैं । भिन्नता व समानता की इस तुलना में मात्र शाब्दिक ऐक्य या भेद नहीं देखा जाना है, अपितु लक्ष्य एवं भाव - गत- - ऐक्य एवं भेद भी निर्णीत करना आवश्यक है । अतः इसी दृष्टि से भारतीय दर्शनों की तत्त्वमीमांसा के परिप्रेक्ष्य में जैनाभिमत तत्त्वमीमांसा का तुलनात्मक अध्ययन संक्षेप में यहाँ प्रस्तुत है जहाँ तक 'अस्तिकाय' की अवधारणा है, यह जैनदर्शन की नितान्त मौलिक अवधारणा है । इस दृष्टि से वस्तु तत्त्व को अलग संज्ञा किसी भी अन्य दर्शन में प्राप्त नहीं होती और न ही ऐसा वर्गीकरण अन्यत्र कहीं मिलता है । अतः भारतीय दर्शन को यह जैनदर्शन की मौलिक देन है। इसी प्रकार सप्त-तत्त्व एवं नवपदार्थ का वर्गीकरण विशुद्ध दार्शनिक वर्गीकरण है, 170 :: जैनधर्म परिचय For Private And Personal Use Only
SR No.020865
Book TitleJain Dharm Parichay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRushabhprasad Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2012
Total Pages876
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy