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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 4. प्रमेयत्व गुण- द्रव्य का वह गुण जिससे वह जाना जाता है, उसे प्रमेयत्व गुण कहते हैं। 5. प्रदेशत्व गुण- द्रव्य का वह गुण जिसके निमित्त से द्रव्य का कोई न कोई आकार बना रहता है, उसे प्रदेशत्व गुण कहते हैं। 6. अगुरुलघुत्व गुण- द्रव्य का वह गुण जिसके कारण वह अपने स्वरूप में अवस्थित रहता है, इस शक्ति के निमित्त से द्रव्य की द्रव्यता कायम रहती है। अर्थात् (क) एक द्रव्य दूसरे द्रव्य रूप नहीं परिणमता (ख) एक गुण दूसरे गुण रूप नहीं परिणमता (ग) एक द्रव्य के अनेक या अनन्त गुण बिखरकर जुदे-जुदे नहीं होते। उपर्युक्त छहों गुण विश्व के प्रत्येक पदार्थ में पाये जाते हैं। लोक में ऐसा कोई भी पदार्थ नहीं है, जिसमें इन छह गुणों में से किसी एक की भी कमी हो। सभी द्रव्यों में समान रूप से पाये जाने के कारण इन्हें सामान्य गुण कहते हैं। विशेष गुण-जो गुण सभी द्रव्यों में न पाये जाए, वे विशेष गुण हैं। विशेष गुण प्रत्येक द्रव्य का अपना होता है, विशेष गुण अनेक हैं, उनमें सोलह प्रमुख हैं। वे हैंज्ञान, दर्शन, सुख, वीर्य, स्पर्श, रस, गन्ध, वर्ण, गति-हेतुत्व, स्थिति-हेतुत्व, अवगाहनहेतुत्व, वर्तना-हेतुत्व, चेतनत्व, अचेतनत्व, मूर्तत्व, और अमूर्तत्त्व।' इनमें ज्ञान, दर्शन, सुख, वीर्य, चेतनत्व और अमूर्तत्त्व ये छह जीव के विशेष गुण हैं। स्पर्श, रस, गंध, वर्ण, अचेतनत्व और मूर्तत्त्व ये छह पुद्गल के विशेष गुण हैं। धर्म, अधर्म, आकाश और कालद्रव्य के अचेतनत्व और अमूर्तत्व के साथ क्रमशः गतिहेतुत्व, स्थिति-हेतुत्व, अवगाहन-हेतुत्व और वर्तना-हेतुत्व इस प्रकार तीन-तीन विशेष गुण हैं। पर्याय ___ आचार्यों ने 'सहवर्तिनः गणाः क्रमवर्तिनः पर्यायाः। कहकर द्रव्य में गुणों व पर्यायों की स्थिति स्पष्ट कर दी है। तदनुसार गुण युगपद्रव्य में विद्यमान होते हैं, जबकि ये पर्यायें क्रमश: अपनेअपने समय पर उदित होती हैं। यह परिवर्तन प्रतिसमय चलता रहता है। प्रत्येक गुण की प्रतिसमय भिन्न-भिन्न पर्यायें होती रहती हैं। और उनमें परस्पर कोई बाधा नहीं आती। यथा- जीव के ज्ञान गुण की पर्याय जिस समय मतिज्ञान रूप हो रही है, उसी समय दर्शन गुण की पर्याय चक्षुदर्शन रूप हो रही है। प्रतिसमयवर्ती यह परिवर्तन इतना सूक्ष्म है कि वस्तुतः इसके प्रतिसमय के परिवर्तन को केवलज्ञान ही जान सकता है। सामान्य संसारी जीवों के पास तो मति-श्रुतज्ञान का ही क्षयोपशम होने से वे प्रतिसमयवर्ती परिवर्तन को लक्षित नहीं कर पाते है; वे तो कई समय बाद के स्थूल परिवर्तन को ही समझ पाते हैं। जैसे कि हरा आम चार दिन में पककर पीला हुआ, तो हमें उसके तत्त्व-मीमांसा :: 161 For Private And Personal Use Only
SR No.020865
Book TitleJain Dharm Parichay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRushabhprasad Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2012
Total Pages876
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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