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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir संख्या की अपेक्षा द्रव्यों का परिचय- संख्या की अपेक्षा जैनदर्शन में जीवद्रव्य 'अनन्त', पुद्गल अनन्तानन्त, धर्म-अधर्म-आकाश द्रव्य एक-एक एवं काल द्रव्य लोकाकाश-प्रमाण असंख्यात हैं। आधुनिक विज्ञान के अनुसार द्रव्यों का परिचय जैनदर्शन में मान्य द्रव्यों को आधुनिक विज्ञान भी अपने शब्दों में स्वीकार करता है, यथा 1. जीवद्रव्य को विज्ञान सीधे रूप में तो स्वीकार नहीं करता है. क्योंकि उसके यन्त्रों के परीक्षण में यह पकड़ में नहीं आता है, फिर भी इसके कुछ लक्षणों यथासंवेदन-शक्ति (Feeling Power), संकोच-विस्तार-शक्ति (Contraction and Expension Power) को वैज्ञानिकों ने स्वीकृति प्रदान की है। 2. पुद्गल द्रव्य को विज्ञान ने (Matter) के रूप में तथा इसके स्कन्धों को एवं परमाणुओं को Atoms आदि के रूप में स्वीकार किया है। चूँकि पुद्गल द्रव्य प्रायशः भौतिक तत्त्व है, अतः इसके अधिकांश रूप वैज्ञानिक यन्त्रों द्वारा ग्रहण किये जा सके हैं। अतः पुद्गल के इन रूपों को विज्ञान मान्यता देता है। 3. धर्मद्रव्य को विज्ञान (Medium of Motion) के रूप में स्वीकार करता है। कहीं कहीं इसे ईथर (Eather) से भी संज्ञित किया है। 4. अधर्म द्रव्य को विज्ञान Medium of Rest की संज्ञा से अभिहित करता है। 5. आकाश द्रव्य को विज्ञान Space के रूप में स्वीकार करता है। 6. काल द्रव्य को विज्ञान Time के रूप में स्वीकार करता है। गुण द्रव्याश्रया निर्गणाः गुणा:- (तत्त्वार्थसूत्र, 5/41) अर्थात् जो द्रव्य के आश्रित हों और गुणान्तरों के प्रभाव से रहित हों, उन्हें गुण कहते हैं। गुण दो प्रकार के होते हैंसामान्य गुण और विशेष गुण। सामान्य गुण-जो समस्त द्रव्यों में समान रूप से पाये जाते हैं, उन्हें सामान्य गुण कहते हैं। सामान्य गुण के छह भेद हैं 1. अस्तित्व 2. वस्तुत्व 3. द्रव्यत्व 4. प्रमेयत्व 5. प्रदेशत्व 6. अगुरुलघुत्व। 1. अस्तित्व गुण- द्रव्य का वह गुण जिसके कारण द्रव्य का कभी विनाश न हो, उसे अस्तित्व गुण कहते हैं। 2. वस्तुत्व गुण- द्रव्य का वह गुण जिसके कारण वह कोई न कोई अर्थक्रिया करता रहे, उसे वस्तुत्व गुण कहते हैं। 3. द्रव्यत्व गुण-द्रव्य का वह गुण जो परिवर्तनशील पर्यायों का आधार है उसे द्रव्यत्व गुण कहते हैं। 160 :: जैनधर्म परिचय For Private And Personal Use Only
SR No.020865
Book TitleJain Dharm Parichay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRushabhprasad Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2012
Total Pages876
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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