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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पृष्ठ - 160) लिखता है - 'लड़ाई के जमाने में अनेक पत्रों ने प्रेस की अव्यवस्था से अपना प्रकाशन बन्द किया, कितनों ही ने कागज के अभाव में गहरी नींद ले ली, पर 'मित्र' बराबर प्रकट होता रहा । कापड़िया जी सूर्योदय की तरह नियमित पत्रकारिता में विश्वास रखते हैं । ' भारतवर्षीय दिगम्बर जैन महासभा का मुख पत्र 'जैन गजट' 1895 में प्रारम्भ हुआ था, पत्र ने अपने सम्पादकीयों में स्वदेशी का खूब प्रचार किया । 16 मार्च, 1905 के अंक में लिखा गया है कि- 'हमें अपने देश में इतने कारखाने लगाना चाहिए जिससे विदेशों से माल मँगाने की आवश्यकता ही न पड़े।' इस पत्र ने 1947 के विविध अंकों में पाकिस्तान के जैन मन्दिरों के विनाश की जानकारी पाठकों की दी थी। देवबन्द (उ.प्र.) से प्रकाशित होने वाले 'जैन प्रदीप' (उर्दू) का उदय तो मानों विदेशी शासन से मुक्ति दिलाने के लिए ही हुआ था। इसके सम्पादक श्री ज्योति प्रसाद जैन राष्ट्रीय भावनाओं से ओत-प्रोत थे, उन्होंने पत्र के अप्रैल, 1930 तथा मई-जून, 1930 के अंकों में 'भगवान महावीर और महात्मा गाँधी' शीर्षक लेख उर्दू में लिखा । लेख का सारांश था कि - " जैसे महावीर ने यज्ञों से मुक्ति दिलाई वैसे ही गाँधी जी विदेशी शासकों से मुक्ति दिलायें।" इस पर पत्र की जमानत जब्त होने की नौबत आयी। कलक्टर ने बहुतेरा समझाया कि - ' आप मेरे पिता के मित्र हैं, आप इतना लिखकर दे दो कि मेरे लिखने का भाव वह नहीं जो सरकार ने समझा है, बाकी मैं देख लूँगा ।' पर ज्योतिप्रसाद जी ने कहा- मैं झूठ कैसे लिख दूँ, मेरा भाव वही है जो सरकार ने समझा है।' अन्त में लेख और जमानत जब्त हो गयी और पत्र का प्रकाशन भी बन्द हो गया । कुछ जैन पत्रों ने तो अंक ही नहीं अपने विशेषांक भी स्वाधीनता पर निकाले, इनमें 'जैन प्रकाश' का नाम अग्रगण्य है। पत्र ने 25 नवम्बर, 1930 को अपना 'राष्ट्रीय अंक' निकाला। भारतीय स्वतन्त्रता संग्राम का वह संघर्ष काल था । महात्मा गाँधी के नेतृत्व में उस समय असहयोग आन्दोलन चल रहा था, ऐसे में राष्ट्रीय अंक निकालना कितने साहस का काम था। इसके सौ पृष्ठों की सामग्री में गुजराती और हिन्दी में स्वतन्त्रता पर ही पूरे लेख / कविताएँ लिखी गयी हैं । इसी तरह भा. दि. जैन संघ, मथुरा, (उ.प्र.) के मुख पत्र 'जैन सन्देश' ने भी 23 जनवरी, 1947 को अपना राष्ट्रीय अंक निकाला | अनेक महत्त्वपूर्ण लेखों के साथ ही अनेक जैन शहीदों / जेल यात्रियों का परिचय इसमें हैं, कविताएँ नव-जागृति लाने वाली हैं। प्रथम पृष्ठ पर 'स्वाधीनता की प्रतिज्ञा' नाम से स्वतन्त्रता के जन्मसिद्ध अधिकार का समर्थन किया गया है। राष्ट्रगीत की तर्ज पर एक सुन्दर गीत भी इसमें दिया गया है । पत्र ने अपने 16 मई, 1946 के अंक में राष्ट्रीयता के विषय में लिखा था - ' 'जैन स्वतन्त्रता आन्दोलन में जैनों का योगदान :: 135 For Private And Personal Use Only
SR No.020865
Book TitleJain Dharm Parichay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRushabhprasad Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2012
Total Pages876
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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