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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir नये परिवेश में जाना चाहता है- किसी अविनाशी सम्पदा की चाह में। सन्देह नहीं कि तीर्थंकरों, वीतरागी मुनियों या महापुरुषों की तपोभूमि पर पहुँचते ही, वहाँ के परम पावन परिवेश का स्पर्श पाते ही, उसका मन उल्लसित हो उठता है। तीर्थ-भूमि की रज ही इतनी पवित्र होती है कि उसके स्पर्श से ही उसके परिणाम बदलने लगते हैं और उसके लिए आत्मशान्ति का मार्ग स्वतः सरल बन जाता है। तीर्थ-यात्रा का ध्येय ही जब आत्मशुद्धि है, तो इसकी पहली शर्त है कि यथासम्भव पर से निर्वृत्ति और आत्मा की प्रवृत्ति। तीर्थ पर जाकर तीर्थंकरों और वीतरागी मुनियों, महापुरुषों के जीवन व उनकी साधना का बारम्बार स्मरण कर अपने जीवन को निश्छल भाव से उस दिशा में मोड़ना हमारा पहला कर्तव्य होना चाहिए। सांसारिकता में ग्रस्त कुछ लोग ऐसा मान बैठे हैं कि समय निकालकर तीर्थ की एकाधिक वन्दना या अनेक परिक्रमाएँ करने से, पूजा-पाठ या अधिक दान या चढ़ावा देने आदि अनेक क्रियाओं से उद्दिष्ट लाभ पाया जा सकता है, पुण्य जुटाया जा सकता है। आत्मशुद्धि हुई कि नहीं, इससे विशेष सरोकार नहीं रहता, तो समझ लीजिए कि उसने तीर्थ यात्रा का महत्त्व नहीं समझा और न ही कुछ पाया। कहा भी गया है : तीरथ चाले दोई जन, चित चंचल मन चोर। एकहु पाप न उतरया, दस मन लाये और ॥ तीर्थ-भूमियों की वन्दना का माहात्म्य ही यह है कि तन-मन की शुचिता को अपनाया जाए, अपनी प्रवृत्ति को संसार की चिन्ताओं से दूर रखकर वीतरागी महापुरुषों के जीवन का श्रद्धा के साथ चिन्तन करते हुए आत्म-कल्याण की ओर अपने चित्त की अवस्था बनाए। सिद्धक्षेत्र (निर्वाणक्षेत्र) अष्टापद (कैलास) प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव अष्टापद से मुक्त हुए थे। अष्टापद को कैलास पर्वत एवं धवलगिरि भी कहा जाता है। हरिवंशपुराण' में आचार्य जिनसेन ने तीर्थंकर ऋषभदेव की निर्वाण-प्राप्ति का वर्णन करते हुए लिखा है तस्मिन्नद्रौ जिनेन्द्रः स्फटिकमणिशिलाजालरम्ये निषण्णो योगानां सन्निरोधं सह दशभिरथो योगिनां यैः सहस्रैः। कृत्वा कृत्वान्तमन्ते चतुरपरमहाकर्मभेदस्य शर्म स्थानं स्थानं स सैद्धं समगमदमलस्रग्धराभ्यय॑मानः॥ 12.81 ॥ अर्थात्, ‘स्फटिकमणि की शिलाओं से रमणीय उस कैलास पर्वत पर आरूढ़ होकर . जैनतीर्थ :: 97 For Private And Personal Use Only
SR No.020865
Book TitleJain Dharm Parichay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRushabhprasad Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2012
Total Pages876
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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