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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सप्तमः प्रस्तावः। ततो भूयोऽपि धर्मार्थ विनिवार्य धनव्ययम् / मंजातः सागरादेशादहं रकः परिग्रहे // ततः परिग्रहेणोकः सागरो मित्रवत्सल / नौयमानः पयं साक्षादहं भो रक्षितस्वया // त्वत्तोऽपि से विशेषेण संपन्ना धात्वत्सला। एषा कृपणता लिन मम जीवितदायिका // गाढं बहुलिकाप्येषा ज्ञेया मदुपकारिणी। सोऽकलको महाशचुर्गाढं निर्वामितो यया // नचार विहितं चार यदागत्य नरोत्तम / मंदर्भितार्यके भक्तिः पालितोऽयं त्वया बनः // एवं च भाषमाणं तं महामोरः परियहम् / प्रत्युवाच यथा वत्स माधु माधूदितं त्वया // अयं हि सागरो वत्स सर्वखं मम जीवितम् / मदीयवीर्य निःशेषं भावतोऽत्र प्रतिष्ठितम् // अयं निर्मिथ्यभनो मे सागरो मामके बले / मत्पुत्री राज्ययोग्योऽयमयं ते रक्षणक्षमः // एवं चोलासितस्तेन महामोहेन सागरः। संजातो मां वशौकत्य स मदागमबाधकः / ततो विवर्धिताकांक्षो दूरौलतमदागमः / संजातयकहत्योऽहं यथा पूर्व तथा पुनः // ततो मदौयवृत्तान्तं समाकर्ण्य कृपापरः / भूयः प्रचलितो भद्रे मोऽकलको मदनितकम् // For Private and Personal Use Only
SR No.020850
Book TitleUpmiti Bhav Prapanch Katha Part 02
Original Sutra AuthorN/A
Author
Publisher
Publication Year
Total Pages599
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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