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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तखुत्तो सेसेसु कप्पेसु, उप चिं || एजंकोवगरणत्ताए जवबलपुत्रा, हंता गोयमा ! असई अडुवा भा. ४ एवं चेत्र नवरं नो चेवणं देवित्ताए जाव गेविगा अणुत्तरोववाइएसवि एवं चैव नो चेवणं देवत्ताए देवित्तात्ति ॥ ७३ ॥ ततश्च - ९३२ ॥ मूलम् ॥ - जाइतिएहिं दिवेहिं । तुह न जोगेहिं पसमिया तिह्ना ॥ सा कह समि ही माहिं हं कलुषेहिं ॥ ७४ ॥ व्याख्या - सुगमा, न वरं तुचैः कणिकत्वादस्पैः, करुणैर्मानुष्यशरीरिणां मलमूत्रादिमयत्वाज्जुगुप्सनीयैः, उक्तं च स्थानांगे - सिंगारा कामा देवाएं, कलुसा कामा मणुस्साएं, बीजचा कामा तिरिरकोणीयाणं, रूद्दा कामा नेरईयाएं सूक्तं चात्र, किंच ॥ मूलम् ॥ -- विसएसु सुहं विश्वसि । न न नरयं जीव कंमरीदेव ॥ जह मुछाए मत्रो । पिछs मंसं न उप व डिसं ॥ ७५ ॥ व्याख्या - सुगमा, नवरं वडिशं मत्स्यबंधनं गलिकेति प्रसिद्धं ॥ १५ ॥ कंमरीककथानकं यथा कंमरीककथा - पृष्टचंपा जनादृष्ट-कंपा पूरस्ति भारते । तत्र सालः क्षमापालः । कालः प्रत्यर्थिनाम For Private and Personal Use Only
SR No.020847
Book TitleUpdesh Chintamani Satik Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayshekharsuri
PublisherShravak Hiralal Hansraj
Publication Year1922
Total Pages230
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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