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________________ तत्वार्थसूत्रे मैवेयकाः कल्पातीताः - कल्पेभ्योऽतीताः कल्पं वाऽतिक्रान्ताः, उपरितनक्षेत्रवर्तिनो वैमानिकाः, विमानेषु भवाः–वैमानिकाः देवाः चतुर्दशविधाः सन्ति, नवग्रैवेयक पञ्चानुत्तरौ - पपातिकभेदात् । तत्रा–ऽधस्तनग्रैवेयकत्रयम्, मध्यमग्रैवेयकत्रयम्, उपरितनग्रैवेयकत्रयम्, इत्येवं नवग्रैवेयकाः पञ्चाऽनुत्तरौपपातिकाः, न-उत्तरं येभ्यस्तेऽनुत्तरा, अनुत्तराश्चते - औपपातिकाश्चेति अनुत्तरौपपातिकाः । उपपातोऽस्ति येषां ते - औपपातिकाः देवाः -- विजय - वैजयन्त - जयन्ता - ऽपराजित - सर्वार्थसिद्वाः, तेषां भेदात् तथाच - नवग्रैवेयकाः पञ्चाऽनुत्तरौपपातिकाश्चेत्येवं संमिलिताश्चतुर्दशविधाः खलु कल्पातीताः वैमानिकदेवा भवन्ति ॥ २१ ५१४ तत्त्वार्थनिर्युक्तिः पूर्वं तावत् सौधर्मेशानादिका द्वादशविधाः कल्पोपपन्नका वैमानिकदेवाः प्ररूपिताः सम्प्रति - चतुर्दशविधान् कल्पातीतान् वैमानिकदेवान् प्ररूपयितुमाह“ कप्पाईया वेमाणिया चउदस विहा, णवगेवेज्जग पंचानुत्तरोववाइयभेया – ” इति । कल्पातीताः–कल्पेभ्यो द्वादशसंख्यकेभ्यः पूर्वोक्तेभ्यः सौधर्मादिसंज्ञकेभ्योऽतीतास्तानतिक्रान्ताः उपरितनक्षेत्रे वर्तमानाः कल्पातीताः वैमानिका देवाश्चतुर्दशविधाः सन्ति, नवग्रैवेयक-प ञ्चानुत्तरौपपातिकभेदात् तत्र - नवत्रैवेयकास्तावत् - लोकरूपपुरुषस्य ग्रीवेव ग्रीवा कण्ठप्रदेशः, तस्यां भवा ग्रैवेयकाः ग्रीवाभरणभूता देवविशेषाः ग्रैवेयका उच्यन्ते - तत्राधस्तनग्रैवेयकास्त्रयः, मध्यमग्रैवेयकास्त्रयः, उपरितनग्रैवेयकात्रय चेत्येवं संमील्य नवसंख्य जो देव बारह कल्पों से अतीत - बाहर हैं वे कल्पातीत कहे जाते हैं । अथवा जिन देवों में इन्द्र, सामानिक आदि की कल्पना नहीं होती - जिनमें स्वामी-सेवक भाव नहीं होता, जो सभी अहमिन्द्र हैं, उन देवों को कल्पातीत कहते हैं । ये देव बारह देवलोकों से ऊपर रहते हैं । विमानों में उत्पन्न होने के कारण उनकी वैमानिक संज्ञा है । वे चौदह प्रकार के हैं - नौग्रैवेयक विमानों में उत्पन्न होने वाले और पाँच अनुत्तरविमानों में उत्पन्न होने वाले ॥२१॥ तत्त्वार्थनियुक्ति – इससे पहले सौधर्म, ईशान, आदि बारह प्रकार के कल्पोपपन्नक वैमानिक देवोंकी प्ररूपणा की गई है। अब चौदहप्रकार के कल्पातीत वैमानिकों की प्ररूपणा करने के लिए कहते हैं कल्पातीत वैमानिक देव चौदह प्रकार के हैं - नौ ग्रैवेयकदेव एवं पाँच अनुत्तरोपपातिक सौधर्म आदि पूर्वोक्त बारह कल्पों से जो अतीत हों अर्थात् उनसे भी ऊपरके क्षेत्र में जो हों, वे कल्पातीत कहलाते हैं अथवा जो इन्द्र सामानिक की भेदकल्पना से अतीत हों-सब समान श्रेणी के हों, वे कल्पातीत कहलाते हैं । कल्पातीत देवों के पूर्वोक्त चौदह भेद हैं । ग्रैवेयक विमान नौ हैं । प्ररूपणा की अनुकूलता को दृष्टि से उन्हे तीन भागों में विभक्त किया गया है - तीन अधस्तन अर्थात् नीचे के, तीन मध्यम अर्थात् बीच के
SR No.020813
Book TitleTattvartha Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherJain Shastroddhar Samiti
Publication Year1973
Total Pages1020
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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