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________________ दीपिकानियुक्तिश्च अ०४ सू० १६ देवमेदनिरूपणम् ४९३ जयणाए छेयाए दिवाए देवगतीए जाव एगाहं वा वियाहं वा तियाहं वा उक्कोसेणं छम्मासे वीइवएज्जा, अत्थेगइयं विमाणं वीइएज्जा, अत्थेगइयं नो वीइवएज्जा, ए महालयाणं गोयमा ! विमाणा पण्णत्ता" कियन्महान्तो भदन्त ! विमानाः प्रज्ञप्ताः ! गौतम ! अयं खलु जम्बूद्वीपो द्वीपः सर्वद्वीपसमुद्राणां मध्ये क्षुल्लको देवो महर्द्धिको यावत् महानुभागो यावत इदमेवेति कृत्वा केवलकल्पं जम्बूद्वोपं द्वीपं त्रिभिरक्षरनिपातैस्त्रिसप्तकृत्वः अनुपरिवर्त्य शीघ्रमागच्छेत् स देवस्तया उत्कृष्टया त्वरितया चण्डया चपलया शीघ्रया उद्धतया यतनया छेकया दिव्यया यावद् एकाहं वा, द्यहंवा त्र्यहं वोत्कृष्टतः षण्मासं व्यतिवर्तेत कियदेकं विमानं व्यतिवर्तेत कियदेवं न व्यतिवर्तेत इयन्महान्तो गोतम ! विमानाः प्रज्ञाप्ताः । तथाचैवंविधाः खलु गतयो देवानां वि मध्यमाः सन्ति, अन्येषाञ्च देवाना मुत्कृष्ठतमा गतयः सन्ति । एवञ्च-पुण्यनामकर्मोदयजनिता देवगतयो भवन्ति । सातिशयक्रोडाग'तद्युतिस्वभावाः प्रतिविशिष्टस्थानवर्तिनः सुखबाहुल्या देवा भवन्ति इति । ते खलु देवाश्चतुर्विधाः सन्ति भवनपति-वानव्यन्तरब्योतिष्कवैमानिकभेदात् । तत्र-भवनपतयौऽधो लोके निवसन्ति । वानव्यन्तराः-ज्योतिष्काश्च तिर्यग्लोके । वैमा नकाश्चोर्द्धवलोके निवसन्ति । प्रश्न---भगवन् ! बिमान कितने बड़े कहे गए हैं ? उत्तर-- हे गौतम ! यह जम्बूद्वीप नामक द्वीप सर्व द्वीपों और समुद्रों के मध्य में है और सब से छोटा (एक लाख योजन विस्तार वाला) है। कोई महान् ऋद्धि का धारक यावत् महाम् प्रभाव वाला देव 'ये लो' ऐसा कह कर सिर्फ तीन चुटकियों में अर्थात् तीन बार चुटकी बजाने में जितना समय लगता है उतने से स्वल्प काल में इक्कीस बार सम्पूर्ण जम्बूद्वीप की प्रदक्षिणा करके एकदम लौट आये, ऐसी अतिशय तीव्र गतिवाला हो वह देव अपनी उसी उत्कृष्ट, त्वरायुक्त, प्रचण्ड, चपल, शीघ्र, उद्धन, वेगयुक्त (या यातनामय) छेक और दिव्य गति से, एक दिन, दो दिन, तीन दिन और उत्कृष्ट छह महेने तक लगातार चलता रहे, तो किसी एक विमान को पार कर ले और किसी विमान को छह महीने में भी पार न कर पावे । हे गौतम ! देवविमान इतने विशाल होते हैं ! तात्पर्य यह है कि जो देव तीन चुटकियों में इक्कीस बार समग्र जम्बूद्वीप का चक्कर काट सकता है, वही देव छह मास तक लगातार चल कर भी किसी-किसी विमान को पार नहीं कर सकता ! इससे देव विमानों को विशालता की कल्पना आसकती है । यह तो देवों की मध्यम गतियाँ हैं। दूसरे देवों की गतियाँ उत्कृष्ठतम होती है । इस प्रकार देवगतियाँ पुण्यनाम कर्म के उदय से जनित होती हैं। देव विशिष्ट क्रीड़ा, गति और धुति स्वभाव वाले विशिष्ट-विशिष्ट स्थानों में रहने बाले तथा सुख की बहुलता वाले होते हैं । वे देव चार प्रकार के हैं-भवनपति, वानव्यन्तर, ज्योतिष्क, और वैमानिक । उक्त चार प्रकार के देवों में से भवनपति अधोलोक में निवास करते हैं, वानव्यन्तर और ज्योतिष्क मध्य लोक में रहते हैं और वैमानिक ऊर्ध्वलोक में निवास करते हैं।
SR No.020813
Book TitleTattvartha Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherJain Shastroddhar Samiti
Publication Year1973
Total Pages1020
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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