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________________ दीपिकानियुक्तिश्च अ. ३. सू. ४ बन्धस्वरूपनिरूपणम् ३५९ कृतिविषयं प्रज्ञापनायाम्-२१-पदे १-उद्देशके २८८-सूत्रे-"अट्ठकम्मपगडीओ पण्णत्ताओ, तंजहा-णाणावरणिज्ज-दसणावरणिज्ज-वेदणिज्ज-मोहणिज्ज- आउयं-नाम-गोयं-अंतरा इयं-" इति । अष्टकर्मप्रकृतयः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-ज्ञानारणीयम्-दर्शनावरणीयम्-वेदनीयम्-आयुष्यम्नाम-गोत्रम्-अन्तरायिकम्, इति । तथाच-मूलप्रकृतिबन्धोऽष्टविधो भवतीति सिद्धम् ॥ ४ ॥ तत्त्वार्थनियुक्तिः-पूर्वसूत्रोक्तेषु प्रकृतिस्थित्यनुभावप्रदेशबन्धलक्षणेषु चतुर्पु बन्धभेदेषु प्रथमस्तावत्प्रकृतिबन्धो द्विविधः प्रज्ञप्तः, मूलप्रकृतिबन्धः-उत्तरप्रकृतिबन्धश्च । तत्र-प्रथमं मूलप्रकृतिबन्धमष्टविधं प्रतिपादयितुमाह - "अट्टकम्म-" इत्यादि । अष्टौ कर्मप्रकृतयः प्रज्ञप्तः, ज्ञानावरण-१ दर्शनावरण-२ वेदनीय-३ मोहनीय-४ ऽऽयुष्य५ नाम-६ गोत्रा-७ ऽन्तराय-८ भेदात् । तत्र-ज्ञानं तावद् बोधस्वरूपं विशेषविषयकम् आत्मनः पर्यायः । एवं-सामान्यविषयकं दर्शनमपि । आत्मपर्यायएव ज्ञान-दर्शनयोरावरणम्-आच्छादनम् ज्ञानावरणम्-१ दर्शनावरणञ्च-२ आवरणमावृत्तिः आवियतेऽनेनेति व्युत्पत्या भावकरणयोWटिअनादेशे, आवरणशब्दनिष्पत्तिः । सुखदुःखरूपेण वेदनीयतया वेदनीयमिति-३ कर्मव्युत्पत्तिः । मुह्यति-अनेन मोहयति मोहनं वा मोहनीयम्-४ करणकर्तृभावव्युत्पत्तिः । एत्यनेन नरकादिवर्गणा के पुद्गल ज्ञोनावरण, दर्शनावरण, वेदनीय आदि नाना भेदो को प्राप्त होते हैं। प्रज्ञापनासूत्र के २१ वें पद में, प्रथम उद्देशक के २८८ वें सूत्र में कहा है-'कर्म की आठ प्रकृत्तियाँ कही वई हैं यथा-ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, वेदनीय, मोहनीय, आयु, नाम, गोत्र और अन्तराय ।' तत्त्वार्थनियुक्ति--पूर्वसूत्र में कथित प्रकृति, स्थिति, अनुभाग और प्रदेश बन्ध-इन चार प्रकार के वन्धों में से पहला प्रकृतिबन्ध दो प्रकार का कहा गया है-(१) मूल प्रकृतिबन्ध और (२) उत्तर प्रकृतिबन्ध । इन दो भेदों में से प्रथम मूल प्रकृतिबन्ध आठ प्रकार का है, यह बतलाने के लिए कहते हैं कर्म की मूल प्रकृतियाँ आठ हैं, जिन्हें आठ कर्म भी कहते हैं। उनके नाम इस प्रकार हैं-(१) ज्ञानावरण (२) दर्शनावरण (३) वेदनीय (४) मोहनीय (५) आयु (६) नाम (७) गोत्र और (८) अन्तराय । ज्ञान आत्मा का एक असाधारण बोधात्मक गुण है, जिसके द्वारा वस्तु के विशेष अंश का परिज्ञान होता है । दर्शन आत्मा का वह असाधारण गुण है जिसके द्वारा वस्तु का सामान्य अंश जाना जाता है । जो कर्म प्रवृत्ति ज्ञान और वस्तु को आवृत्त या आच्छादित करती है अर्थात् टैंक देती है, उसे क्रमशः ज्ञानावरण और दर्शनावरण कहते हैं। 'आवरण' शब्द भावसाधन भी है और करणसाधन (आच्छादन) भी है । आवृत्ति, को भी आवरण कहते हैं और जिसके द्वारा आवृत्ति की जाय उसे भी आवरण कहते हैं । संस्कृत भाषा के अनुसार ल्युट् प्रत्यय करने पर 'आवरण' शब्द निष्पन्न होता है ।
SR No.020813
Book TitleTattvartha Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherJain Shastroddhar Samiti
Publication Year1973
Total Pages1020
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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