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________________ ३५८ तत्त्वार्थसूत्रे मूलसूत्रम् - "अट्ट कम्मपगडीओ णाणावरणदसणावरणवेयणिज्जमोहणिज्जाउनामगोत्तंतराया-" ॥४॥ छाया- अष्टौ कर्मप्रकृतयः ज्ञानावरणदर्शनावरणबेदनीय-मोहनीया-ऽऽयु-र्नाम गोत्रा ऽन्तरायाः-" तत्त्वार्थदीपिका-पूर्वोक्तो बन्धस्तावद् द्विविधः, मूलप्रकृतिबन्धः उत्तरप्रकृतिबन्धश्च । तत्राऽष्टविधं मूलप्रकृतिबन्ध प्ररूपितुमाह-"एट्ठकम्म" इत्यादि । आद्यस्तावत् प्रकृतिबन्धोऽप्रविधः प्रज्ञप्तः, ज्ञानावरण-१ दर्शनावरण-२ वेदनीय–३ मोहनीय-४ आयुष्य-५ नाम-३ गोत्रा-७ ऽन्तराय-८ भेदात् । तत्रा-ऽऽत्रियतेऽनेन, आवृणोति वेत्यावरणम्, ज्ञानस्यावरण- १ एवं-दर्शनावणमपि-२ वेद्यते यत्तद्-वेदनीयम्, बेदनीयम् , वेदयति वा-वेदनीयम्-३ एवं-मुह्यतेऽनेन, मोहयतीति वा । मोहनीयम्-४ एति नारकादिभवमनेनेत्यायुः-५ नानायोनिषु नारकादिपर्यायैर्नमयत्यात्मानम् , नक्यतेऽनेनेति नाम-६ उच्चैर्नीचैश्च गूयते-शब्द्यते इति गोत्रम्-७ दातृदेयपाात्रादीनामन्तरं-मध्ये एति मध्ये आगत्य विघ्नं करोतीत्यन्तरायः-८ एकात्मपरिणामेनादीयमानाः कर्मभावयोग्याः पुद्गला ज्ञानावरणदर्शनावरणवेदनीयादिनानाभेदं प्रतिपद्यन्ते, सकृदुपभुक्तान्नपरिणामरस-रुधिर-शुक्र-मांस-मज्जादिवत् । तथाचोक्तमष्टकर्मप्र सूत्रार्थ--'अट्ठ कम्मपगडीओ' इत्यादि ॥सूत्र ४॥ कर्मप्रकृतियाँ आठ हैं-ज्ञानावरण, दर्शनावरण, वेदनीय, मोहनीय, आयु, नाम, गोत्र और अन्तराय ॥४॥ तत्त्वार्थदीपिका--पूर्वोक्त बन्ध के दो प्रकार हैं-मूल प्रकृतिबन्ध और उत्तरप्रकृति बन्ध । इनमें से आठ प्रकार के मूलप्रकृति बन्ध का निरूपण करने के लिए कहते हैं-मूलप्रकृतिबन्ध आठ प्रकार का कहा गया है-(१) ज्ञानावरण (२) दर्शनावरण (३) वेदनीय (४) मोहनीय (५) आयुष्य (६) नाम (७) गोत्र और (८) अन्तराय जिसके द्वारा जीव का ज्ञान गुण वृत-आच्छादित किया जाय या जो ज्ञान गुण को आच्छादित करता है, वह ज्ञानावरण कहलाता है । जो कर्म दर्शन गुण को आवृत करता है, वह दर्शनावरण कहलाता है । जिसके निमित्त से सुख दुःख का वेदन अर्थात् अनुभव किया जाता है, वह वेदनीय कहलाता है जिसके द्वारा जीव मोहित होता है या जो जीव को मूढ बनाता है, वह मोहनीय है । जिसके उदय से जीव नारक आदि भवों को प्राप्त करके वहाँ टिका रहता है वह आयु कर्म है । जो कर्म आत्मा को नाना योनियों में, नारक आदि पर्यायों के द्वारा निमित्त करता है अर्थात् जिसके कारण जीव नारक आदि कहलाता है वह नाम कर्म है। जिसके उदय से जीव उँचा या नीचा कहा जाता है, उसे गोत्र कहते हैं । जो दाता, देय और दानपात्र के अन्तराल में-बीच में आजाता है, आकर विघ्न डाल देता हैं, उसे अन्तराय कहते हैं। । जैसे एक साथ खाया हुआ आहार रस, रुधिर, मांस, मज्जा, शुक्र आदि नाना धातुओं के रूप में परिणत हो जाता है, उसी प्रकार आत्मा के एक ही परिणाम से ग्रहण किये हुए कर्म
SR No.020813
Book TitleTattvartha Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherJain Shastroddhar Samiti
Publication Year1973
Total Pages1020
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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