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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir क्रमशः ब्रह्मचर्य, गाहेस्थ्य, वाणप्रस्थ और सन्यास का पालन करना चाहिये । ये ही जीवन के चार आश्रम है, और इन्हीं के सुचारु रूपसे पालन करने में जीवन को सफलता है। मनुष्य-समाज गुण और कर्मों के अनुसार चार वर्णों में विभाजित है - ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र । ब्राह्मण का कर्तव्य वेदाध्ययन और धर्मानुष्ठान है। क्षत्रिय का धर्म, देश और समाज की रक्षा करना है । वैश्य का कर्तव्य कृषि वाणिज्यादि द्वारा समाज को सुखी और धनसम्पन्न बनाना है । तथा शूद्र का कर्तव्य उक्त वर्णों की विधिवत् सेवा करना है। यह वर्णाश्रम धर्म मनु, याज्ञवल्क्य आदि स्मतिग्रंथों में विस्तार से वर्णित पाया जाता है । वैदिक सम्प्रदाय का संस्कृत साहित्य बहुत विशाल है। रामायण और महाभारत इसकी बहुत प्राचीन और लोकप्रिय रचनायें हैं। कालिदासादि महाकवियों द्वारा रचे गये काव्यों और नाटकों का यहां प्रचुर भंडार है। अनेक पुराणों में इतिहासातीत काल से लगाकर राजाओं और महर्षियों की वंशावलियां पाई जाती हैं। किन्तु इस साहित्य के देवी देवता वेदों के देवताओं से कुछ भिन्न हैं। यहां विष्णु और शिव तथा काली और दुर्गा की पूजा का प्राधान्य है। यों तो हिन्दू धर्म के नाना सम्प्रदाय देशभर में फैले हुए है, तथापि स्थूल रूप से उत्तर भारत में वैष्णव सम्प्रदाय का, दक्षिण में शैव सम्प्रदाय का तथा पूर्व में बंगाल और उसके आसपास कालो-पूजा का अधिक प्रचार है। बौद्ध धर्म प्राचीनतम साहित्य में एवं अशोक की प्रशस्तियों में हमें दो संस्कृतियों का उल्लेख मिलता है-बाह्मण और श्रमण । ब्राह्मण धर्म का वर्णन ऊपर किया जा चुका है। श्रमण सम्प्रदाय के अनुयायी वेदों की प्रामाणिकता को स्वीकार नहीं करते थे। न वे यज्ञ के क्रियाकाण्ड को मानते थे, और न वर्णाश्रम व्यवस्था को उसी रूप में ग्रहण करते थे। श्रमण मन, वचन और काय की प्रवृत्तियों में विशुद्धि पर जोर देते थे, इन्द्रिय-निग्रह और परिग्रह-त्याग को आत्मिक शुद्धि के लिये आवश्यक समझते थे. एवं अहिंसा को धर्म का अनिवार्य अंग मानते थे । इन मौलिक सिद्धान्तों के भीतर श्रमण की चर्या में भी नाना भेद थे जिनका प्रचार भारत के पूर्व भाग मगध और विहार के प्रदेशों में विशेष रूप से था। कपिलवस्तु के राजकुमार गौतम बुद्ध पर इन्हीं श्रमण मान्यताओं का प्रभाव पड़ा और वे संसार से उदासीन होकर त्यागी हो गये। उन्होंने कठोर संयम का पालन किया, तपस्या की, और उपवास धारण किये, जिस से उनका शरीर अत्यन्त क्षीण हो गया। एक लम्बे उपवास की दुर्बलता से मूछित होकर जब उनकी चेतना जागी तब वे विचार करने लगे कि क्या आत्मकल्याण के लिये यह सब कायक्लेश आवश्यक है ? बस, इस प्रश्न का उन्हें जो उत्तर मिला वही उनका 'बोधि' या 'ज्ञान' था। उन्होंने देखा कि अपने शरीर को अनावश्यक क्लेश देना भी उतना ही बुरा है जितना दूसरों को क्लेश देना या इन्द्रिय-लोलुपता में आसक्त होना । For Private And Personal Use Only
SR No.020812
Book TitleTattva Samucchaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherBharat Jain Mahamandal
Publication Year1952
Total Pages210
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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