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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तत्त्व-समुच्चय ५ दंशमशक पुट्ठो य दंसमसएहिं समरे व महामुणी । नागो भंगामसीसे वा सूरो अभिहणे परं ॥ १० ॥ न संतसे न वारेउजा मणं पि न पऊसए । उवेहे न हणे पाणे भुंजन्ते मंससोणियं ॥ ११ ॥ ६ अचैल परिजुण्णेहि वत्येहि होक्खायि त्ति अचेलए । अदु वा सचेले होक्खामि इइ भिक्खू न चिन्तए ॥ १२ ॥ एगयाचेलए होइ सचेले आवि एगया । एयं धम्महियं नच्चा नाणी नो परिदेवए ।॥ १३ ॥ ७ अरति गामाणुगामं रीयन्तं अणगारं अकिंचणं । अरई अणुप्पवेसेज्जा तं तितिक्खे परीसहं ॥ १४ ॥ अरई पिट्ठओ किच्चा विरए आयरक्खिए । धम्मारामे निरारम्भे उवसन्ते मुणी चरे ॥ १५ ॥ ८ स्त्री संगो एस मणूसाणं जाओ लोगम्मि इथिओ । जस्स एया परिनाया सुकड तस्स सामण्णं ॥ १६ ॥ एयमादाय मेहावी पंकभूया उ इथिओ। नो ताहिं विणिहम्मेज्जा चरेज्जत्तावेसए ॥ १७ ॥ ९ चर्या एग एव चरे लाढे अभिभूय परीसहे | गामे वा नगरे वा वि निगमे वा रायहाणिए ॥ १८ ॥ असमाणे चरे भिक्खू नेव कुजा परिग्गहं । असंसत्ते निहत्थेहिं अणिएओ परिवए ॥ १९ ॥ १० निषद्या सुसाणे सुन्नगारे वा रुक्खमूले व एगओ । अकुक्कुओ निसीएज्जा न य वित्तासए परं ॥ २० ॥ For Private And Personal Use Only
SR No.020812
Book TitleTattva Samucchaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherBharat Jain Mahamandal
Publication Year1952
Total Pages210
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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