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गृहस्थ-धर्म [१]
अरहते वंदित्ता सावगधम्म दुवालसंविहं पि । वोच्छामि समासेणं गुरूवएसाणुसारेणं ॥ १ ॥ सपत्तदंसाई पइदियह जइजणा सुणेई य । सामायारिं परमं जो खलु तं सावगं विति ॥ २ ॥ पंचेव अणुव्वयाई गुणव्वयाई च हुंति तिन्नेव । सिक्खावयाई चउरो सावगधम्मो दुवालसहा ॥ ३ ॥ ६
अहिंसा पंच उ अणुब्बयाई थूलगपाणिवहविरमणाईणि । सत्थ पदम इमं खलु पन्नत्तं वीयरागेहिं ॥ ४ ॥ १०६ थूलगपाणिवहस्साविरई दुविहो अ सो वहो होइ । संकप्पारंभैहि य वज्जइ संकप्पओ विहिणा ॥ ५ ॥ १०७ उच्चालियम्मि पाए इरियासमियस्स संकमट्ठाए । वावज्जिज्ज कुलिंगी मरिज्ज तं जोगमासज्ज ॥ ६ ॥ २२३ न य तस्स तन्निमित्तो बंधो सुहुमो वि दोसिओ समए । जम्हा सो अपमत्तो सा उ पमाउ त्ति निविट्ठा ॥ ७ ॥ २२४ पडिवज्जिऊण य वयं तस्सइयारे जहाविहिं नाउं । संपुण्णपालणट्ठा परिहरियचा पयत्तेणं ॥ ८ ॥ २५७ बध-वह-छविविच्छेए अइभारे भत्त-पाणवुच्छेए । कोहाइदूसियमणो गोमणुयाईण नो कुजा ॥९॥ २५८ परिसुद्धजलग्गहणं दारुयधन्नाइयाण तह चेव । गहियाण वि परिभोगो विहीइ तसरक्खणट्ठाए ॥१०॥ २५९
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