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जीवां की दशाओं व योग्यताओं आदि का विचार द्वितीय इन्द्रियमार्गणा में किया जाता है। पथ्यो आदि एकेन्द्रिय जीवों का शरीर स्थावर और द्वीन्द्रिय आदि जीवों का शरीर त्रस कहलाता है। एकेन्द्रियों में भी वनस्पति के प्रत्येक व साधारण, तथा सप्रतिष्ठित व अप्रतिष्ठित आदि भेद होते हैं। इस सब का विचार कायमार्गणा नामक ततीय मार्गणा में किया गया है। मन, वचन और काय को क्रिया का नाम योग है, और चौथी योगमार्गणा में जीव की इन्हीं क्रियाओं का विचार किया जाता है। कोई जोव पुरुष लिंगी होते हैं, कोई स्त्री लिंगी और कोई नपुंसक । इसके विचार के लिये पांचवीं वेद मार्गणा है। क्रोध, मान, माया
और लोभ ये जीव के चार कषाय रूप विकार है इन्हीं का विधिवत् ज्ञान कगने वाली छठी कषाय मार्गणा है। मति, श्रुत, अवधि, मनःपर्यय और केवल, ये ज्ञान के पांच भेद हैं। इनका ही सूक्ष्म विचार सातवीं ज्ञानमार्गणा में पाया जाता है । अतधारण, समिति-पालन, कषायों का निग्रह, मन, वचन, काय की असत्प्रवृत्तियों का त्याग और इंद्रियों का निग्रह, ये संयम के कार्य है और इनका विचार आठवीं संयम मार्गणा में होता है। ज्ञान से पूर्व चेतना का जो पदार्थ के प्रति अवधान होता है उसे दर्शन कहते हैं। यह दर्शन चक्षु, अचक्षु, अवधि और केवल रूप से चार प्रकार का है जिसका विवरण नौवीं दर्शन मार्गणा का विषय है। क्रोध मानादि कषायों के उदय सहित अथवा बिना उदय के जो मन वचन काय की प्रवृत्ति में तीव्रता व मंदता पाई जाती है वह लेश्या कहलाती है, क्योंकि इसी के द्वारा जोव पर कर्मों का लेप बढ़ता है। कषायों के चढ़ाव उतार की अपेक्षा इसके छह भेद है: कृष्ण, नील, कापोत, पोत, पद्म और शुक्ल । इन्हींका विचार दशवीं लेण्या मार्गणा में किया गया है। कोई जीव तो सद्दष्टि प्राप्त कर सिद्ध होने योग्य अर्थात् भव्य है और कोई अभव्य । जीवों का यही भेद ग्यारहवीं भव्यत्व मार्गणा का विषय है। जिस गुण की प्राप्ति से जीव मिथ्यात्व छोड़कर श्रद्धानी बन कर अपना व दूसरों का कल्याण करने लगता है उसे सम्यक्त्व कहते हैं। इसी के स्वरूप का अध्ययन करने के लिये बारहवीं सम्यक्त्व मार्गणा है । एकेन्द्रिय से लगाकर चतुरिन्द्रिय तक के समस्त जीव और पंचेन्द्रियों में भी कुछ जीव ऐसी योग्यता नहीं रखते जिससे वे शिक्षा, क्रिया, आलाप व उपदेश का ग्रहण कर सकें। य जीव असंजी हैं और जो शिक्षादि को ग्रहण कर सकते हैं वे संजी। यह विवेक तेरहवीं संज्ञा मार्गणा में किया गया है। नया शरीर धारण करने के लिये गमन आदि कुछ ही ऐसो अवस्थायें हैं जब जीव अपने आंगोपांगादि के पोषण योग्य नोकर्म वर्गणारूप पुद्गलद्रव्य का आहार या ग्रहण न करता हो। शेष अवस्थाओं में तो वह निरन्तर आहार करता ही रहता है। जीव की इन्हीं आहारक व अनाहारक अवस्थाओं का विचार चौदहवी आहार मार्गणा में पाया जाता है। इस प्रकार प्राणि-वर्ग का अध्ययन इन चौदह मार्गणाओं में किया गया है।
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