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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir गुणस्थान कहते हैं । सबसे निम्न गुणस्थान उन अनन्त जीवों का है जिन्हें स्वपर, आत्म-अनात्म एवं बुरे-भले का कोई विवेक नहीं। यह मिथ्यात्व गुणस्थान है। जिस समय जीव को तात्त्विक दृष्टि प्राप्त हो जाती है, तब उसका सम्यक्त्त्व नामक चौथा गुणस्थान हो जाता है । यदि यह सम्यक्त्व की प्राप्ति तात्त्विक दृष्टि को ढकने वाले कमों के क्षयसे अर्थात् क्षायिक न होकर केवल उन कर्मों के तात्कालिक उपशम या क्षयोपशम मात्र से हुई तो उस जीव के सम्यक्त्त्व से पुन: पतित होने की संभावना होती है । सम्यवत्त्व से पतित होकर मिथ्यात्व तक पहुंचने से पूर्व जीव की जो आध्यात्मिक अवस्था होती है उसे सासादन नामक दुसरा गणस्थान कहा गया है । कभी कभी सम्यक्त्व के साथ कुछ मिथ्यात्व का अंश भी मिश्रित हो जाता है । यह सम्यग्मिथ्यात्व या मिश्र नामक तीसरा गुणस्थान है । सम्यक्त्व हो जाने पर जब कुछ संयमभाव जागत हो जाता है और जीव क्रमशः श्रावक के व्रतों का पालन करने लगता है तब उसका देशविरत या संयमासंयम नामक पांचवां गुणस्थान होता है। महावतों के पालक छठे गुणस्थानवर्ती 'संयत' या प्रमत्तविरत होते हैं। जब संयम में से पन्द्रह प्रकार का प्रमाद भी दूर हो जाता है तब सातवां अप्रमत्त गुणस्थान होता है। इससे आगे यदि जीव अपनी घातक कर्मप्रकृतियों का.. उपशम करता हुआ आगे बढ़ता है तो वह अपूर्वकरण, अनिवृत्तिकरण और सूक्ष्मसाम्पसय इन आठवें, नौवें और दश गुणस्थानों में से बढ़ता हुआ ग्यारहवें गुणस्थान में उपशान्तमोह' रूप वीतराग होकर कुछ क्षणों पश्चात् अर्थात् अन्तर्मुहूर्त में ही पुनः नीचे आ गिरता है। यह उपशम श्रेणी कहलाती है। किन्तु यदि जीव उक्त तीन गुणस्थानों में अपनी चातक प्रकृतियों का क्षय करता हुआ बढ़ता है तो वह ग्यारहवें गुणस्थान में न पहुंचकर बारहवें 'क्षीणमोह' गुणस्थान में पहुंच जाता है जहां से यह केवलज्ञान प्राप्त कर 'सयोगकेवली' नामक तेरहवें और वहां से । अयोगकेवली' नामक चौदहवें गुणस्थान में पहुंचकर अल्पकाल में ही शरीर को छोड़ सिद्ध, मुक्त, परमात्मा हो जाता है। जिस समय जीव तेरहवें सयोगकेवली गुणस्थान में होता है, तभी यदि उसने अपने पुण्य कर्मों द्वारा तीर्थकर गोत्र का बन्ध किया हो तो, वह तीर्थकर बनकर जीवों को सन्मार्ग का उपदेश देता है। जीवजगत् का पोलोचन जीवों की विशेष परिस्थितियों का अध्ययन करने की चौदह दिशायें मानी गई हैं जिन्हें 'मार्गणास्थान' कहते हैं। नरक, लियंच, गनध्य और देव ये चार गतियां हैं। इनमें जीवों की क्या दशाएं होती है और उनमें कितने गणस्थान प्राप्त किये जा सकते हैं इसका विचार प्रथम गतिमार्गणा में होता है। कोई जीव जैसे पृथ्वी, अप, तेज वायु व वनस्पति कायिक स्पर्श इन्द्रियमात्र के विकसित होने से एकेन्द्रिय होते है। किन्हीं के स्पर्श और जिहा ये दो इन्द्रियां होती है। किन्हीं के घाण और होमे से वे श्रीन्द्रिय होते हैं। कोई चक्ष भी रखते हैं और चतुरेन्द्रिय होते हैं। तथा कोई जीव श्रोत्र सहित पंचेन्द्रिय होते हैं। इन For Private And Personal Use Only
SR No.020812
Book TitleTattva Samucchaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherBharat Jain Mahamandal
Publication Year1952
Total Pages210
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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