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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १६२ भरत (भरह) - जम्बू द्वीप का प्रथम क्षेत्र १-३१ - प्रथम चक्रवर्ती १-५० भव्य ( भन्य)- सिद्ध होने योग्य जीव १-१ भव्यत्व ( भविय )- ११ वी मार्गणा १२-५३ भावनिक्षेप ( भाव ) निक्षेप भेद १६-३ भावबंध - कर्मबंध के योग्य चेतनभाव ९-२५ भावमोक्ष (भाव मोक्ख) - कर्म-क्षयके हेतुभूत आत्म-परिणाम ९-३० भाव सत्य - सत्य वचन भेद १२-१५ भाव संवर - कर्मास्रवनिरोध के हेतुभूत आत्मपरिणाम ९-२७ भावास्रव (भावासव) - कर्मास्रव के योग्य आत्मपरिणाम ९-२२ भावि - नोआगम द्रव्य निक्षेप भेद १६-७ भावि नैगम (नहगम) - नैगमनय का भेद १५-२९ भावेन्द्रिय (भाविंदिय) - मति आदि ज्ञानों के योग्य विशुद्धि व तजन्य बोध भाषा समिति (भासा समिदी) - साधु के योग्य वचन की सावधानता ५-१२ भीमावलि - पहले रुद्र १-५५ भू-अलीक (भूआलिय) - सत्याणुव्रत का अतिचार २-११ भूत नैगमनय ( भूयणहगम ) - नैगमनय का भेद १५-२७ भृत्य-आंध्र ( भन्थहण) - नरवाहन के पश्चात् राज्यकाल प्रारंभ १-७३ - राज्यकाल २४० वर्ष १-७४ भेद - पुद्गल पर्याय ९-११ भेद कल्पना सापेक्ष नय (भेदक्कप्पेण) - अशुद्ध द्रव्यार्थिक नय का भेद १५-१७ भेद विकल्प निरपेक्ष नय ( भेद वियप्पेण णिखेक्खो) - शुद्ध द्रव्यार्थिक नय का भेद १५-१४ भोक्ता ( भोत्ता) - जीवलक्षण ९-२ भोग अन्तराय - अंतराय कर्म का भेद १०-१५ भोग-विरति ( भोय विरइ)- प्रथम शिक्षावत, व्रत प्रतिमा का अंग ३-१६ मंगल - मं. २-३ मघवा - ३ रे चक्रवर्ती १-५.. मघवी - ६ ठी पृथ्वी का गोत्र नाम १-९ For Private And Personal Use Only
SR No.020812
Book TitleTattva Samucchaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherBharat Jain Mahamandal
Publication Year1952
Total Pages210
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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