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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तत्व-समुच्चय __ जो कार्य भविष्यकालमें होनेवाला है, उसके अभी निष्पन्न नहीं होने पर भी निष्पन्न हुआ कहना, जै। जो अभी गया नहीं है उसे गया कहना, भावि नैगम नय है।॥२९॥ २. संग्रह नय-२ भिन्न भिन्न वस्तुओंमें उनके विशेष गुण-धर्मों के कारण भारी विरोध होनेपर भी उनके सामान्य 'सत्ता' गुणके कारण सभीको अस्तिरूप माननेवाला शुद्ध संग्रह नय है। तथा उन वस्तुओं में अवान्तर समानताओंके आधारसे एक अलग आति विशेषका ग्रहण करनेवाला अशुद्ध संग्रह नय है ॥३०॥ ३. व्यवहार नय-२ संग्रह नयके द्वारा ग्रहण की हुई समस्त द्रव्यों की एक जातिमें विधिवत् भेद करनेवाला, शुद्धार्थभेदक व्यवहार नय है । जैसे द्रव्यके दो भेद हैं-जीव और अजीव । तथा उन अवान्तर जातियों में भी उपभेद करनेवाला अशुद्धार्थभेदक व्यवहार नय है। जैसे जीवके दो भेद संसारी और मुक्त ॥३१॥ ४. ऋजुसूत्र-२ ऋजुसूत्र वस्तुकी वर्तमान पर्याय मात्रको विषय करता है। उसमें जो केवल एक समयवर्ती पर्यायका ही ग्रहण करता है वह सूक्ष्म ऋजपूत्र नय है; जैसे शब्द क्षणिक है। और जो द्रव्यकी परिमितकाल वर्ती स्थिति-विशेषको ग्रहण करता है वह स्थूल ऋजुमूत्र नय है; जैसे मनुष्य कहनेसे मनुष्य आयुभरकी पर्यायका ग्रहण करना ।। ३२-३३ ॥ ५. शब्दनय जो एकार्थवाची शब्दोंमें भी लिंग आदिके भेदसे अर्थभेद मानता है वह शब्द नय कहा गया है। जैसे पुष्य शब्द पुल्लिंगमें नाव नक्षत्रका वाचक होता है और पुष्या स्त्रीलिंगमै तारिकाका बोध कराती है, इत्यादि ।। ३४ ॥ अथवा, व्याकरणसे सिद्ध हुए शब्दमें जो अर्थका व्यवहार किया जाता है उसी अर्थको उस शब्दद्वारा विषय करना, जैसे देव शब्दके द्वारा उसका सुगृहात अर्थ देव अर्थात् सुर ही ग्रहण करना यह शब्द नय है ।। ३५ ॥ ६. समभिरूढ़ नय जिस प्रकार प्रत्येक पदार्थ अपने वाचक शब्दमें आरूढ है, उसी प्रकार प्रत्येक शब्द भी अपने अपने अर्थमें आरूढ़ है, अर्थात् शब्दभेदके साथ अर्थभेद For Private And Personal Use Only
SR No.020812
Book TitleTattva Samucchaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherBharat Jain Mahamandal
Publication Year1952
Total Pages210
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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