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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १०६ तत्व-समुच्चय ७ मोक्ष जीवका जो परिणाम समस्त कर्मोंके क्षय होनेमें कारणीभूत होता है वह भावमोक्ष जानना चाहिये, तथा जीवसे कर्मप्रदेशोंके पृथक् होनेको द्रव्यमोक्ष समझना चाहिये ॥३०॥ पुण्य-पाप शुभ भावोंसे युक्त जीव पुण्यरूप और अशुभ भावोंसे युक्त जीव पापरूप होते हैं । ज्ञानावरणीयादि आठ कर्मोंके भेदोंमें से सातावेदनीय, शुभ अर्थात् तिर्यग्, मनुष्य और देव ये तीन आयु, सैंतीस प्रकारका शुभ नाम ( जैसे मनुष्य और देव गतियां, पंचेन्द्रिय जाति, पांच शरीर, तीन अंगोपांम आदि) और शुभ अर्थात् उच्च गोत्र, ये कर्मप्रकृतियां पुण्य और शेष ज्ञानावरणीयादि समस्त प्रकृतियां पाप कहलाती हैं ॥३१॥ सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक् चारित्र, इन्हें व्यवहारनयकी अपेक्षा मोक्षके कारण जानना चाहिये । निश्चयनयकी अपेक्षा उक्त तीनों गुणोंसे युक्त अपना आत्मा ही मोक्षका कारण है ॥३२॥ जीवको छोड़कर किसी भी अन्य द्रव्यमें सम्यग्दर्शनादि रत्नत्रय नहीं होते । इसीलिये उक्त तीन गुणमय आत्मा ही मोक्षका कारण है ॥३३॥ जीवादि तत्त्वमि श्रद्धान करना ही सम्यग्दर्शन है और यही आत्मस्वरूप अर्थात् स्वरूपाचरण सम्यक्त्व है। इसी सम्यक्त्वके होने पर जो दुरभिनिवेश, संशय, विमोह और विभ्रमसे रहित आत्म और पर अर्थात् जीव और अजीव द्रव्यों का भले प्रकार ग्रहण होता है वह साकार सम्यग्ज्ञान है, जो मति, श्रुत आदि भेदप्रभेदों सहित अनेक प्रकारका होता है ॥३४-३५॥ अशुभ कार्योंसे निवृत्ति और शुभ कार्योंमें प्रवृत्तिको सम्यक्चारित्र कहते हैं । व्यवहारनयकी अपेक्षासे जिन भगवान्ने व्रत, समिति और गुप्तियोंको सम्यक् चारित्र कहा है ॥३६॥ For Private And Personal Use Only
SR No.020812
Book TitleTattva Samucchaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherBharat Jain Mahamandal
Publication Year1952
Total Pages210
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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