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छह द्रव्य : सात तत्त्व : नौ पदार्थ
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शानावरणादि आठ कर्मों के योग्य जो पुद्गल द्रव्यका आस्वव अर्थात् ग्रहण किया जाता है उसे द्रव्यास्रव जानना चाहिये। उसके जिनेन्द्र भगवानने अनेक भेद कहे हैं ॥२४॥
४ बंध जिस चेतनभाव अर्थात् जीवके परिणाम द्वारा जीव कर्म बंध करता है वह भावबंध है। तथा कर्मों के और आत्माके प्रदेशों का जो अन्योन्य प्रवेश होता है वह द्रव्यबंध है ॥२५॥
___ बंध चार प्रकारका होता है ग्रहण किये हुए पुद्गल परमाणुओंमें ज्ञानावरणीय आदि विविध शक्तियों का उत्पन्न होना यह प्रकृति बन्ध है; उन परमाणुओं के जीवनपदेशों के साथ रहनेकी काल-मर्यादा निश्चित होना स्थिति बन्ध है; उन कर्नामें हीनाधिक फलदायिनी शक्ति उत्पन्न होना अनुभाग बन्ध है;
और ग्रहण किये जानेवाले परमाणुओंकी संख्या का निर्धारण प्रदेश बन्ध है । इनमें से प्रकृति और प्रदेश बन्ध मन, वचन व कायकी प्रवृत्तिरूप योगसे उत्पन्न होता है, और स्थिति तथा अनुभाग बंध क्रोध, मान, माया व लोभरूप कषायों के उदयानुसार होते हैं ॥ २६ ॥
५ संवर जीवनका जो चेतन-भाव कर्मोंके आस्रवको रोकनेमें हेतुभूत होता है वह भावसंवर है। तया जो कर्मपरमाणुओंके ग्रहणकी क्रियाका अविरोध होता है वह द्रव्यसंवर है ।। २७ ॥
पांच व्रत, पांच समिति, तीन गुप्ति, दश धर्म, बारह अनुप्रेक्षा तथा बावीस परीपहोंका जय, ये नाना भेदरूप चारित्र मावसंवरके प्रकार जानना चाहिये ।।२८।।
६ निर्जरा जीवके जिस चतेनभावके द्वारा कमपुद्गल झर जाते हैं, अर्थात् जीवप्रदेशोंसे पृथक् होजाते हैं उसे भाव निर्जरा कहते हैं, और इस पृथक् होनेकी क्रियाको द्रव्य निर्जरा कहते हैं । यह निर्जरा दो कारणोंसे होती है-एक तो यथाकाल अर्थात् काँकी काल-मर्यादा पूर्ण होजानेके कारण इसे सविपाक निर्जरा कहते हैं। और दूसरी तप के द्वारा काल-मर्यादा पूर्ण होने से पूर्व ही। इसे अविपाक निर्जरा कहते हैं । यही निर्जरा आत्म विशुद्धिौ कारणीभूत होती है ॥ २९ ॥
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