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तत्त्वनिर्णयप्रासादपरिणामिक प्राधान्यतासे, परमखभाव, द्रव्योंमें है. परिणामका स्वरूप ऐसा है.
सर्वथा न गमो यस्मात् सर्वथा न च आगमः॥
परिणामः प्रमासिद्ध इष्टश्च खलु पंडितैः ॥ १॥ भाषार्थः-सर्वथा जिससे जाना न होवे, और सर्वथा आगमन, न होवे, सो परिणाम, प्रमाणसिद्ध है; ऐसा पंडितोंको इष्ट है. जैसे सुव
के कटक कुंडल कंकणादि. । ११ । . शुद्धाशुद्धपरमभावग्राहक नयके मतस, चेतनस्वभाव जीवको; और अस. द्भूतव्यवहारनयसें, ज्ञानावरणादि कर्म, तथा नोकर्म मनवचनकायापणा, इनको चेतन कहिये. चेतनसंयोगकृतपर्याय वहां है, इसवास्ते 'इदं शरीरमावश्यकं जानाति' यह शरीर आवश्यक जानता है, इत्यादि व्यवहार इसीवास्ते होता है. घृतं दहतीतिवत्. । १२ ।
परमभावग्राहकनयके मतसें कर्म नोकर्मको, अचेतनस्वभाव; यथा घृत अनुष्णस्वभाव. और असद्भूतव्यवहारनयसें जीवको भी, अचेतनस्वभाव. इसीवास्ते ' जडोयमचेतनोयम् ' इत्यादि व्यवहार है.। १३ ।
परमभावग्राहकनयके मतसें कर्म नोकर्मको मूर्तस्वभाव असतव्यवहारनयसें जीवको भी मूर्तस्वभाव; इसीवास्ते 'अयमात्मा दृश्यते' यह आत्मा दिखता है, 'अमुमात्मानं पश्यामि' इस आत्माको में देखता हूं, इत्यादि व्यवहार है. तथा 'रक्तौ च पद्मप्रभवासुपूज्यौ' इत्यादि वचन भी इसी स्वभावसे है. । १४।
परमभावग्राहकनयसें, पुद्गलवर्जके अन्योंको अमूर्त स्वभाव; और पुद्गलको उपचारसें भी, अमूर्तस्वभाव नही, तो एकवीसमा भाव नही होगा; तव तो, 'एकविंशतिभावाः स्युर्जीवपुद्गलयोर्मताः' इस वचनके व्याघातसें अपसिद्धांत होवेगा, तिसको दूर करनेवास्ते, असद्भूतव्यवहारनयसें परोक्ष, पुद्गलपरमाणु है, तिसको अमूर्त कहिये. व्यवहारिकप्रत्यक्षके अगोचरपणा, सोही, परमाणुका अमूर्तपणा, अंगिकार करिये हैं.
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