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तत्त्वनिर्णयप्रासाद. कुंडल तो कानमें प्रसृत है, और कान इंद्रका एक देश है, तो भी, इंद्र कहके बुलाया जाता है. और दूसरी वृत्ति सर्वसें है, जैसे सामान्य वस्त्रद्वयकी, अर्थात् जामा अंगरखा सर्वअंगमें पहिरा है, सो देवदत्त, यह सर्वसें वृत्ति जाननी. तिहां प्रत्येकमें दूषण, सम्मति वृत्तिमें कहे हैं. यथापरमाणुकी आकाशादिकके साथ देशसें वृत्ति माने तो, आकाशादिकके प्र. देश नही इच्छते भी मानने पडेंगे; और सर्वसें वृत्ति माने तो, परमाणु, आकाशादि प्रमाण होजायगा; और उभयाभाव माने तो, परमाणुको अवृत्तिपणा होजायगा; इसवास्ते द्रव्यको कथंचित् अनेक प्रदेशस्वभाव भी मानना ठीक है. । १६ ।
जेकर एकांत अनेक प्रदेशस्वभाव माने तो, अर्थ क्रियाकारित्वाभाव, और वखभावशून्यताका प्रसंग होवेगा. । १७ । जेकर एकांत विभावस्वभाव माने, तो मुक्तिका अभाव होजावेगा.१८॥ जेकर एकांत शुद्धस्वभाव माने, तब तो, आत्माको कर्मलेप न लगेगा और संसारकी विचित्रताका अभाव होवेगा. । १९ । - जेकर एकांत अशुद्धस्वभाव माने तो, आत्मा कदापि शुद्ध न होवेगा. । २० । _जेकर एकांत उपचरितस्वभाव माने, नव आत्मा कदापि ज्ञाता नही होवेगा. जेकर एकांतअनुपचरित माने तो, स्वपरव्यवसायीज्ञानवंत आत्मा नही होसकेगा. क्योंकि, ज्ञानको स्वविषयत्व तो अनुपचरित है, परंतु परविषयत्व परापेक्षासें प्रतीयमानपणे, तथा परनिरूपित संबंधपणे उपचरित है. । २१ ।
इसवास्ते म्याद्वादमनकरके सर्वही म्वभाव. कथंचित द्रव्यमें मानने चाहिये. उक्तंच॥
नानास्वभावसंयुक्तं द्रव्यं ज्ञात्वा प्रमाणतः ॥ तच्च सापेक्षसिद्यर्थ स्यान्नयमिश्रितं कुरु ॥ १॥
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