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तत्त्वनिर्णयप्रासाद
करती हैं. और येह जो विषयके भिखारी, धनके लोभी, संतमहंत भंगी - जंगी ब्रह्मज्ञानी बने रहते हैं, वे सर्व, दुर्गतिके अधिकारी होते हैं. क्योंकि, इनके मनमें स्त्री, धन, कामभोग, सुंदरशय्या, आसन, स्नान, पानादिपर अत्यंत राग रहता है; और दुःखके आये हीनदीन होके विलाप करते हैं; जैसें कंगाल बनीया धनवानोंको देखके झूरता है, तैसें येह पंडित संतमहंत भंगीजंगी लोकोंकी सुंदर स्त्रियोंको और धनादिसामग्रीको देखकर झूरते हैं; मनमें चाहते हैं, येह हमको मिले तो ठीक है. इस बात में इनोंका मनही साक्षीदाता है. इसवास्ते जो जीव बाह्यवस्तुकोही तत्त्व समझता है, और तिसहीके भोगविलासमें आनंद मानता है, सो प्रथम गुणस्थानवाला जीव वाह्यदृष्टि होनेसें बहिरात्मा कहाजाता है. ॥ १ ॥
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अथ जो पुरुष, तत्त्वश्रद्धानकरके संयुक्त होता है, और कर्मोंके बंधन होनेका हेतु अच्छितरें जानता है; जिसवास्ते यह जो जीव इस संसारा. वस्थामें है, सो जीव, मिथ्यात्व (१), अविरति ( २ ), कषाय ( ३ ), प्रमाद ( ४ ), और योग ( ५ ), इन पांचों कर्मबंधके हेतुयोंकर के निरंतर कर्मोको बांधता है; जब वे कर्मउदयमें आते हैं, तब यह जीव, स्वयमेवही भोगता है; अन्य जन कोई भी तिसमें साहाय्य नही करसकता है. इत्यादि जो जानता है, तथा किंचित् किसी द्रव्यादिवस्तुके नष्ट हुए मनमें ऐसें विचारता है कि, इस पर वस्तु के साथ मेरा संबंध नष्ट होगया है, परंतु मेरा द्रव्य तो, आत्मप्रदेशमें अविष्वग्भाव संबंध करके समवेत, ज्ञानादिलक्षण है, सो तो कहीं भी नही जासकता है. तथा किंचित् द्रव्यादि वस्तुके लाभ होनेसें ऐसें मानता है कि, मेरा इस पौगलिकवस्तुकेसाथ संबंध हुआ है, इससे मुझको इसपर क्या प्रमोद करना चाहिये ! और वेदनीय कर्मके उदयसे जब कष्ट प्राप्त होवे, तब समभाव धारण करे, आत्माको परभावोंसें भिन्न मानके उनके त्यागनेका उपाय करे, चित्तमें परमात्माके स्वरूपका ध्यान करे, आवश्यकादि धर्मकृत्योंमें विशेष उद्यम करे, सो चौथे गुणस्थानसें लेके बारमे गुणस्थानपर्यंतवर्त्ती जीव, अंतर्दृष्टिमान् होनेसें अंतरात्मा कहे जाते हैं. ॥ २ ॥
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