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षट्त्रिंशःस्तम्भः।
६९९ भिन्न (६). इस विशेषणकरके आत्माद्वैतवाद परास्त किया, सो भी संक्षेपसे पूर्व लिख आये हैं. और अलग अलगअपने अपने करे कर्मों के अधीन (७). इस विशेषणकरके नास्तिकमतका पराजय किया, सो पूर्वोक्त अंथसें जान लेना. इन पूर्वोक्त विशेषणविशिष्ट यह आत्मा है. तथा यह आत्मा, संख्यामें अनंतानंत है. जितने तीनकालके समय, तथा आकाशके सर्व प्रदेश हैं, उतने हैं. इसवास्ते मुक्ति होनेसें संसार, सर्वथा कदापि खाली नही होवेगा. जैसें आकाशके मापनेसें कदापि अंत नही आवेगा. तथा येह अनंतानंत आत्मा, जिस लोकमें रहते हैं, सो लोक, भसंख्यासंख्य कोडाकोडी योजनप्रमाण लंबा चौडा उंचा नीचा है. ___ तथा इन आत्माके तीन भेद है. बहिरात्मा (१), अंतरात्मा (२),
और परमात्मा (३). तहां जो जीव, मिथ्यात्वके उदयसें तनु, धन, स्त्री, पुत्र, पुन्यादि परिवार, मंदिर (महलगृहादि), नगर, देश, शत्रु, मित्रादि इष्ट अनिष्ट वस्तुयोंमें रागद्वेषरूप बुद्धि धारण करता है, सो बहिरात्मा है; अर्थात् वो पुरुष भवाभिनंदी है. सांसारिक वस्तुयोंमेंही आनंद मानता है. तथा स्त्री, धन, यौवन, विषयभोगादि जो असार वस्तु है, उन सर्वको सार पदार्थ समझता है; तबतकही पंडिताईसें वैराग्यरस घोंटता है, और परमब्रह्मका खरूप बताता है, और संत महंत योगी ऋषि बना फिरता है, जबतक सुंदर उद्भटयौवनवंती स्त्री नही मिलती है, और धन नहीं मिलता है. जब येह दोनों मिले, तत्काल अद्वैतब्रह्मका द्वैतब्रह्म बन जाता है, और अन्य लोकोंको कहने लगजाता है कि, भइया ! हम जो स्त्री भोगते हैं, इंद्रियोंके रसमें मगन रहते हैं, धन रखते हैं, डेरा बांधते हैं, इत्यादि काम करते हैं, वे सर्व मायाका प्रपंच है; हम तो सदाही अलिप्त हैं. ऐसे २ ब्रह्मज्ञानीयोंका मुंह काला करके, गर्दभपर चढाके देशनिकाला करदेना चाहिये !!! क्योंकि, ऐसे ऐसे भ्रष्टाचारी ब्रह्मज्ञानी, कितनेक मूर्ख लोकोंको ऐसे भ्रष्ट करते हैं कि, उनका चित्त कदापि सन्मार्गमें नही लगसकता है. और कितनीक कुलवंती स्त्रियोंको ऐसे बिगाडते हैं कि, वे कुलमर्यादाको भी लोप कर, इन भंगीजंगी फकीरोंकेसाथ दुराचार
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