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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir तत्त्वनिर्णयप्रासाद तथाहि ॥ विधिप्रतिषेध युगपत् प्रधानभूत दोनों धर्मोको एक पदाथमें युगपत् विधिनिषेध दोनोंकी प्रधानविवक्षामें तैसें शब्दको अनिर्वचनीय होनेसें घटादिवस्तु अवक्तव्य है, विधिप्रतिषेध दोनों धर्मोकरके आक्रांत भी तिस पदार्थको युगपत् दो धर्मोको अवक्तव्यरूप होनेसें, युगपत् विरुद्ध दो धर्मका प्रयोग नही हो सकता है; शीतउष्णकीतरें, सुखदुःखकीतरें. क्रमकरकेही शब्दमें अर्थ कथन करनेका सामर्थ्य होनेसें, युगपत् एककालमें नहीं. क्तक्तवतुकरके संकेतित निष्ठाशब्दवत्, अथवा पुष्पदंत शब्दकरके संकेतित सूर्यचंद्रवत्. निष्ठाशब्दकरके, वा, पुष्पदंतशब्दकरके क्रमसेंही क्तक्तवतुका, और सूर्यचंद्रका अर्थ प्रत्यय होता है, अर्थात् निश्चय होता है. तिसकरके द्वंद्वादिपदोंका भी, युगपत् अर्थप्रत्यायकपणा, खंडन किया. 'घवखदिरौ स्त इति' यहां भी क्रमकरकेही ज्ञान होता है, युगपत् नही. क्योंकि, तैसेंही ज्ञान प्रत्यय होनेसें, और समकालमें शब्दको अवाचकपणा होनेसें, अबक्तव्य है. जीवादिवस्तु, युगपत् विधिप्रतिषेध विकल्पनाकरके संक्रांतही स्थित होता है; ययपि वस्तु, अस्तित्वनास्तित्वधर्मोकरके संयुक्त भी है, तो भी, अस्तिस्वनास्तित्वधर्मोकरके एककालमें कहा नही जाता है, इसवास्ते अवक्तव्य, अर्थात् अनिर्वचनीय घट है. ऐसे फलितार्थ चतुर्थ भंग हुआ. ॥४॥ अथ अर्थसें पांचमा भंग लिखते हैं:-स्यादस्त्येव स्यादवक्तव्यमिति ॥ सदंशपूर्वक युगपत् सदंश असदंशकरके अनिर्वचनीय कल्पनाप्रधानरूप यह भंग है. अपने २ द्रव्यादिचतुष्टयकरके विद्यमान हुआं भी, सदंश असदंशकरके प्ररूपणा इस भंगमें करनेकी सामर्थ्यता नहीं है, जीवादि सर्ववस्तु खद्रव्यादिचतुष्टयकी अपेक्षाकरके है, परंतु विधिप्रतिषेधरूपोंकरके कहनेको अनिर्वचनीय है. 'अस्त्यत्र प्रदेशे घटः' है, इस प्रदेशमें, घट सत्रूप असत्रूप दोनोंकरके एककालमें उन दोनोंका स्वरूप कथन करनेकी सामर्थ्यता न होनेसें, विधिरूप हुआं भी, अवक्तव्य है. एसें फलितार्थ पांचमा भंग हुआ. ॥ ५॥ ___ अथ अर्थसें छठा भंग प्रकट करते हैं:-स्यानास्त्येव स्यादवक्तव्यमिति ॥ निषेधपूर्वक युगपत् विधिनिषेधकरके अनिर्वचनीय प्रधान यह For Private And Personal
SR No.020811
Book TitleTattva Nirnayprasad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVallabhvijay
PublisherAmarchand P Parmar
Publication Year1902
Total Pages863
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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