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षट्त्रिंशःस्तम्भः। तदुक्तम् ॥
उत्पत्तिरव भावानां विनाशे हेतरिष्यते ॥
यो जातश्च न च ध्वस्तो नश्येत् पश्चात् स केन च ॥ अर्थः-उत्पत्तिही, भावोंके विनाशमें हेतु है, जो उत्पन्न हुआ और नाश नही हुआ, सो पीछे किसकरके नाश होवेगा? उत्पत्ति अस्तित्वकी सिद्धिको करती है, सोही उत्पत्ति, विनाश अपरपर्याय नास्तित्वका मूलकारण होनेसें अविनाभाव सिद्ध करती है.
पूर्वपक्षः-जिस स्वरूपसें अस्ति है, जेकर तिसही स्वरूपसें नास्ति है, तब अस्तिनास्ति दोनोंको एकजगे होनेसें भाव, अभाव, दोनोंकी एकतापत्तिरूप अनिष्टका प्रसंग होवेगा.
उत्तरपक्षः-अस्तिनास्ति दोनोंकी भिन्नभिन्न समयमें प्ररूपणा होनेसें पूर्वोक्त दूपण नहीं, पदार्थोंका प्रतिसमय नाश होनेसें. तथा हम ऐसें नहीं मानते हैं कि, जिस समयमें जिसका उत्पाद है, तिसही समयमें उसका विनाश है; तिसवास्ते अस्तित्वके अविनाभावि नास्तित्व सिद्ध हुआ. ऐसें सर्ववस्तु, स्वपरद्रव्यादिचतुष्टयकी अपेक्षा अस्तिनास्तिरूपसें सिद्ध है. अस्तित्वकी प्रधानदशामें प्रथमभंग है और निषेधदशामें दूसरा भंग है. ॥२॥ __अथ अर्थसें तीसरा भंग प्रकट करते हैं:-स्यादस्त्येव स्यानास्त्येवेति ॥ सर्ववस्तु, क्रमकरकेही, खपरद्रव्यादि, चतुष्टयके आधार अनाधा रकी विवक्षासें, प्राप्त अप्राप्त पूर्वअपर भावोंकरके, विधि और प्रतिषेधप्रधानकरके विशेषित तीसरे भंगको भजनेवाला होता है, घटवत्. जैसे, घट, अपने द्रव्यादिचारकी अपेक्षा कथंचित् अस्तिरूपही है, और कथंचित् परद्रव्यादिचारकी अपेक्षा नास्तिरूपही है. विधिप्रतिषेध दोनोंकी प्रधानता कथन करनेवाला, यह तीसरा भंग है. ॥३॥
अथ अर्थसें चौथा भंग प्रकट करते हैं:-स्यादवक्तव्यं युगपद्विधिनिषेधकल्पनया चतुर्थ इति ॥ सदंश असदंश इन दोनोंका समकाल प्ररूपणानिषेधप्रधान यह भंग है.
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