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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir ६३६ तत्त्वनिर्णयप्रासाद हैं ? परोपदेशविना, जातिस्मरणप्रतिभारूप अपनी मतिकरके जाने हैं, और उनके सत्य होनेकी रुचि आत्माके साथ तत्त्वरूपकरके परिणाम जो करता है, तिसको निसर्गरुचि जाननी. इस कथन कोही स्पष्टतर कहते हैं. जो पुरुष जिनेंद्र देवके देखे हुए पदार्थोंको द्रव्य १, क्षेत्र २, काल ३, भाव ४ सें, वा नाम १, स्थापना २, द्रव्य ३, भाव ४ भेदसें, चार प्रकार स्वयमेव आपही परके उपदेशविना जाने, और श्रद्धे किस उल्लेखकरके ? ऐसेंही है, येह जीवादिपदार्थ, जैसे जिनेंद्र देवोंने देखे हैं, अन्यथा नही है, यह निसर्गरुचि है. । १ | इनही जीवादि नव पदार्थों को, जो, छद्मस्थके उपदेशसें, वा जिन - तीर्थंकर - सर्वज्ञके उपदेश श्रद्धे, उसको उपदेशरुचि जाननी । २ । जो हेतु विवक्षितार्थगमककों नही जानता है, केवल जो प्रवचनकी आज्ञा है, तिसको सत्यकरके मानता है, जो प्रवचनोक्त है, सोही सत्य है, अन्य नहीं, यह आज्ञारुचि जाननी. | ३ | जो अंगप्रविष्ट, वा अंगबाह्य सूत्रको पढता हुआ, तिस श्रुतकरकेही सम्यक्त्वको अवगाहन करे, सो सूत्ररुचि जाननी । ४ । जीवादि किसी एक पढ़करके जीवादि अनेकपदों में सम्यक्त्ववान् आत्मा पसरेही है; कैसें पसरे है ? जैसें पानीके एकदेशगत तैलका बिंदु समस्त जलको आक्रमण करता है, तैसें एकदेशउत्पन्नरुचि भी, तथाविध क्षयोपशम भावसें शेषतत्त्वों में भी रुचिमान होता है: ऐसें बीजरुचि जाननी । ५ । जिसने आचारादि एकादश ( ११ ) अंग, उत्तराध्ययनादि प्रकीर्णक, दृष्टिवाद बारमा अंग, और उपांगरूप श्रुतज्ञान, अर्थसें देखा है, और तत्त्वरुचि प्राप्त करी है, तिसको अधिगमरुचि कहते हैं. । ६ धर्मास्तिकायादि सर्व द्रव्योंके भाव (पर्यायों ) को यथायोग्य प्रत्यक्षादि सर्व प्रमाणोंकरके, और सर्व नैगमादि नयोंके भेदोंकरके जिसने जाना है, सो विस्ताररुचि जाननी ; सर्व वस्तुपर्याय प्रपंचके जाननेकरके तिस रुचिको अतिविमल होनेसें । ७ । ज्ञान, दर्शन, चारित्र, तपमें विनय, तथा यदि सर्व समितियोंविषे, और मनोगुप्तिप्रमुख सर्व गुप्तियोंविषे, जो क्रियाभावरुचि, अर्थात् जिसको भावसें ज्ञानादि आचारोंमें अनुष्ठान 1 " For Private And Personal
SR No.020811
Book TitleTattva Nirnayprasad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVallabhvijay
PublisherAmarchand P Parmar
Publication Year1902
Total Pages863
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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